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श्री उपासकदशांग सूत्र
कठिन शब्दार्थ - दिव्वा - दिव्य, देविड्डी - देव ऋद्धि, देवजुई - देव द्युति, देवाणुभावेदेवानुभाग-प्रभाव, किणा - कैसे, लद्धे - उपलब्ध, पत्ते - संप्राप्त, अभिसमण्णागए - अभिसमन्वागत-स्वायत्त, उदाहु - अथवा, अणुट्ठाणेणं - अनुत्थान से, अपुरिसक्कारपरक्कमेणंअपौरुषाकारपराक्रम से।
भावार्थ - तब कुण्डकौलिक श्रमणोपासक ने उस देव से कहा - "हे देव! आपने कहा कि 'मंखलिपुत्र गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी है। उसमें उत्थान आदि की नास्ति यावत् सभी भाव अनियत हैं और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी नहीं है, क्योंकि उसमें उत्थान आदि का अस्तित्व यावत् सभी भाव अनियत बताए गए हैं। सो हे देव! तुम्हें इस प्रकार की यह जो दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति तथा दिव्य देवानुभाग प्राप्त हुआ है, वह उत्थान यावत् पुरुषकारपराक्रम से प्राप्त हुआ है या अनुत्थान, अकर्म यावत् अपुरुषकारपराक्रम से?"
देव का उत्तर तए णं से देवे कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए इमेयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया।
भावार्थ - उस देव ने कुण्डकौलिक श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रिय! मुझे यह दिव्य ऋद्धि, द्युति, देवानुभाग अनुत्थान से यावत् अपुरुषकार-पराक्रम से प्राप्त हुआ है।"
देव पराजित हो गया तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा०! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, जेसि णं जीवाणं णत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा, ते किं ण देवा? अह णं देवा०! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया, तो जं वदसि - सुंदरी णं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती, णत्थि उट्ठाणे इ वा जाव णियया
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