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________________ पांचवां अध्ययन - श्रमणोपासक चुल्लशतक - धन नाश की धमकी ११७ तए णं तस्स चुल्लसयगस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ५ अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तहा चिंतेइ जाव कणीयसं जावं आयंचड़, जाओऽवि य णं इमाओ ममं छ हिरण्णकोडीओ णिहाणपउत्ताओ छ वुडिपउत्ताओ छ पवित्थरपउत्ताओ ताओऽवि य णं इच्छइ ममं साओ गिहाओ णीणेत्ता आलभियाए णयरीए सिंघाडग-जाव विप्पइरित्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्तिकट्ट उद्धाइए जहा सुरादेवो तहेव भारिया पुच्छइ तहेव कहेइ। ___ भावार्थ - उस देव के दूसरी तीसरी बार इस प्रकार कहे जाने पर चुल्लशतक श्रमणोपासक ने विचार किया - अरे यह कोई अनार्य पुरुष है यावत् इसने मेरे तीनों पुत्रों को मार कर यावत् उनके सात-सात टुकड़े कर उनके मांस और रक्त से मुझे सींचा है और अब यह मेरी खजाने में रखी छह करोड़, व्यापार में लगी छह करोड़ और घर बिखरी में लगी छह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं को निकाल कर आलभिया नगरी श्रृंगाटक आदि यावत् चारों ओर बिखेरना चाहता है अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर (श्रेष्ठ) है कि मैं इस पुरुष को पकड़ लूं। ऐसा सोचकर उसे पकड़ने के लिए दौड़ा तो यावत् सुरादेव की तरह उसके हाथों में खंभा आया। उसका कोलाहल सुनकर बहुला भार्या आई, कोलाहल का कारण पूछा। सुरादेव की पत्नी की तरह चुल्लशतक ने भी अपनी पत्नी को सारी बात बतलाई यावत् आलोचना प्रायश्चित्त से विशुद्धि की। - सेसं जहा चुलणीपियस्स जाव सोहम्मे कप्पे अरुणसिद्धे विमाणे उववण्णे, चत्तारि पलिओवमाई ठिई। सेसं तहेव जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ (५) ॥ णिक्खेवो॥ ॥ पंचमं अज्झयणं समत्तं॥ भावार्थ - शेष सारा वर्णन चुलनीपिता के समान समझना चाहिये यावत् सौधर्मकल्प में अरुणसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। वहां उसकी स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होंगे। - निक्षेप - आर्य सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा - हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उपासकदशा सूत्र के पांचवें अध्ययन का यही भाव कहा, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। ॥ पांचवां अध्ययन समाप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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