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________________ [12] उन्होंने राजनैतिक एवं सामाजिक-लौकिक प्रचारकों से प्रभावित हो कर 'सर्वधर्म समभाव' का उनका घोष अपना लिया और अपना आदर्श छोड़ दिया। इस लौकिक प्रचार ने जैन उपदेशकों और लेखकों को भी प्रभावित किया। उन्होंने इस प्रचार को धर्म एवं शास्त्र सम्मत प्रमाणित करने के लिए 'अनेकान्त' का झूठा सहारा ले कर मिथ्यावाद चलाया और धर्मश्रद्धा की जड़ें ही काटने लगे। यदि उपासक-वर्ग उनके बहकावे में नहीं आवे और इन आदर्श उपासकों के साधनामय जीवन पर ध्यान दे, तो अपने धर्म में स्थिर रह सकते हैं। समन्वय नहीं अनेकान्त को रक्षक के बदले भक्षक बनाने वालों की चाल से बचने के लिए श्रमणोपासक आनन्द की इस प्रतिज्ञा पर ध्यान देना चाहिये कि - "मैं अन्ययूथिकादि को मान-सम्मान नहीं दूंगा, बिना बोलाये बोलूँगा भी नहीं और उन्हें आहारादि का निमंत्रण भी नहीं दूंगा।" कुछ दिन पूर्व तक जिन का उपासक था, भक्त था, परम श्रद्धा से एक मात्र उन्हें ही उपास्य एवं आराध्य मानता था, उन गोशालक के अपने घर आने पर भी जिसने आदर नहीं दिया और इतना भी नहीं कहा कि - "आइये, बैठिये।" एक बराबरी के गृहस्थ के आने पर भी हम - “आइये, पधारिये, विराजिये" आदि शब्दों से आगत का स्वागत करते हैं, तब जिन्हें वर्षों तक परम आराध्य मान कर वन्दनादि करते रहे - सर्वोत्कृष्ट सम्मान देते रहे, उसी के आगमन पर मुख फेर कर उपेक्षा करना कितना खटकने वाला होगा - आज की दृष्टि में? आज के ऐसे लोगों की दृष्टि में यह सभ्यता के विरुद्ध व्यवहार है। ऐसे सभ्यतावादी लोग सद्दालपुत्र को 'कट्टरपंथी' या 'सम्प्रदायवादी' कह सकते हैं। किन्तु ऐसी बात नहीं है। ऐसा वही सोच सकता है जिसकी दृष्टि में चोर और साहूकार, कूलटा और सती, विष और अमृत में, एक बाल अथवा भोंदू के समान समादर हो। जो काँच और रत्न में समभावी हो। उस सुश्रावक ने समझ लिया कि ये लोगों को उन्मार्ग में ले जाने वाले हितशत्रु हैं जीवों को भवावटवी में भटका कर दुःखी करने वाले हैं, विष से भी अधिक भयानक हैं। इनकी तो छाया से भी बचना चाहिये। हम जब तक अनजान होते हैं, तब तक मित्र रूप में प्रिय लगने वाले ठग से घनिष्ठता रखते हैं, परन्तु ज्यों ही उसकी असलियत ज्ञात हो जाती है, त्यों ही उससे बच कर दूर रहने लगते हैं। यही बात कुप्रावचनिकों के विषय में समझनी चाहिये। इस प्रकार श्रमणोपासक श्री आनंदजी की प्रतिज्ञा और सकडालजी का गोशालक का आदर नहीं करना सर्वथा उचित है। ऐसा ही दूसरा उदाहरण ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र अ० ५ का श्रमणोपासक सुदर्शनजी का है, जिन्होंने अपने पूर्व के धर्म गुरु परिव्राजकाचार्य शुकजी का आदर नहीं किया था। परिव्राजकाचार्य सरल थे, सत्यान्वेषी थे। सुदर्शनजी का परिवर्तन और अनादर उनके लिये भी लाभदायक हुआ और वे अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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