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________________ द्वितीय अध्ययन - श्रमणोपासक कामदेव - देवकृत उपसर्ग हीणपुण्णचाउद्दसिया हिरिसिरिधिइकित्तिपरिवजिया धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकं खिया पुण्णकं खिया सग्गकं खिया मोक्खकंखिया धम्मपिवासिया पुण्णपिवासिया सग्गपिवासिया मोक्खपिवासिया णो खलु कप्पइ तव देवाणुप्पिया! जं सीलाई वयाई वेरमणाई पच्चक्खाणाई पोसहोववासाइं चालित्तए वा खोभित्तए वा खंडित्तए वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चइत्तए वा, तं जइ णं तुमं अज सीलाई जाव पोसहोववासाई ण छड्डेसि ण भंजेसि तो ते अहं अज इमेणं णीलुप्पल जाव असिणा खण्डाखण्डिं करेमि, जहा णं तुमं देवाणुप्पिया! अदुहट्टवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि'। कठिन शब्दार्थ - अपत्थियपत्थिया - अप्रार्थित प्रार्थित - जिसे कोई नहीं चाहता उस मृत्यु को चाहने वाले, दुरंतपंतलक्खणा - दुःखद अंत तथा अशुभ लक्षण वाले, हीणपुणचाउद्दसिया - पुण्यं चतुर्दशी जिस दिन हीन थी उस अशुभ दिन, हिरि-सिरि-धिइकित्ति परिवजिया - लज्जा, शोभा, धृति तथा कीर्ति से परिवर्तित, धम्मकामया - धर्म की कामना रखने वाले, सग्गकामया - स्वर्ग की कामना रखने वाले, धम्मकंखिया - धर्म की इच्छा रखने वाले, मोक्खकंखिया - मोक्ष की इच्छा रखने वाले, पुण्णपिवासिया - पुण्य की पिपासा-उत्कण्ठा रखने वाले, चालित्तए - चलित होना, खोभित्तए - क्षोभित होना, खंडित्तए - खंडित करना, भंजित्तए - भग्न करना, उज्जित्तए - उज्झित करना, परिच्चइत्तए - परित्याग करना, छडेसि - त्याग करोगे, भंजेसि - तोड़ोगे, असिणा - तलवार से, खंडाखंडिंखण्ड खण्ड, अदुहवसट्टे - आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर। भावार्थ - अरे हे कामदेव श्रमणोपासक! जिसकी कोई चाहना नहीं करता, उस मृत्यु की चाहना करने वाले! दुष्ट एवं हीन लक्षणों वाले! हीन चतुर्दशी को जन्मे। लज्जा, लक्ष्मी, धैर्य और कीर्ति से रहित। धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करने की कामना-आकांक्षा वाले, तीव्र इच्छा युक्त पिपासु, हे देवानुप्रिय! तुझे धारण किए शीलव्रत, अणुव्रत, गुणव्रत तथा पौषधोपवास आदि श्रावक व्रतों से विचलित होना, क्षुभित होना, देश रूप से खण्डना करना, भंग करना, उपेक्षापूर्वक त्याग देना, पूर्णरूप से त्याग कर देना नहीं कल्पता है। परन्तु यदि आज तू इन व्रतों से विचलित नहीं होगा, यावत् परित्याग नहीं करेगा तो इस नीलकमल जैसी तीक्ष्ण तलवार से तेरे खण्ड-खण्ड कर दूँगा, जिससे तू आर्तध्यान युक्त होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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