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निशीथ सूत्र
से किसी के द्वारा सामने लाकर दिए जा रहे अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य - चतुर्विध आहार को लेने का निषेध कर, फिर वापस लौटते हुए उनके पीछे-पीछे जाकर, उनके सम्मुख, पीठ की ओर या अगल-बगल में मधुर, प्रिय वचनों द्वारा उच्च स्वर से बार-बार संबोधित कर - जोर-जोर से बोल-बोल कर याचना करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। .
विवेचन - साधु शरीर की संयम जीवितव्य में उपयोगिता जानता हुआ उसे टिकाए रखने हेतु भिक्षा लेता है। खाद्य पदार्थों में वह लुब्ध, लोलुप या आसक्त नहीं होता, क्योंकि वह मानता है कि यह जीवन भोजन के लिए नहीं है, उत्तम, मधुर, स्वादिष्ट पदार्थों का सेवन करने के लिए नहीं है, किन्तु सात्त्विक, शुद्ध, एषणीय भोजन शरीर को बनाए रखने के लिए है, क्योंकि उसकी संयम में सहयोगिता है।
जहाँ साधु के मन में भोजन के प्रति आसक्ति हो जाती है, वहाँ वह अपनी विशुद्ध भिक्षाचर्या के प्रतिकूल कदम रखने को उतारू हो जाता है। इन सूत्रों में भिक्षा लेने के जिन प्रकारों का वर्णन है, वे आसक्तिपूर्ण हैं, दोषयुक्त हैं।
साधु तो आत्मार्थी व लाघवसम्पन्न होता है। वह अदीनवृत्ति से स्वाभाविक रूप में शुद्ध भिक्षा की याचना करता है। उच्च स्वर में बार-बार संबोधित कर, जोर-जोर से बोल-बोल कर भिक्षा की मांग करना सर्वथा अनुचित, अशोभनीय है, दीनतापूर्ण वृत्ति का सूचक है, क्योंकि ऐसा तो भिखारी करते हैं।
दैन्य के स्थान पर कुतूहलवश भी उपरोक्त रूप में भिक्षा की याचना करना दोषयुक्त है।
भिक्षा याचना के उपर्युक्त रूप भिक्षा की शुद्ध विधि के प्रतिकूल हैं, अविहित हैं, प्रायश्चित्त योग्य हैं।
यहाँ प्रयुक्त अन्यतीर्थिक शब्द जैनेतर गृहस्थों के लिए है तथा गृहस्थ शब्द स्वमतानुयायीजनों के लिए है।
निषेध किए जाने पर भी पुनः भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविढे पडियाइक्खित्ते समाणे दोच्चंपि तमेव कुलं अणुप्पविसइ अणुप्पविसंतं वा साइजइ॥ १३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पडियाइक्खित्ते - प्रत्याख्यात - निषिद्ध किए जाने पर, मनाही किए जाने पर।
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