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निशीथ सूत्र
अनुग्रह का अर्थ प्रसाद, कृपा, उपकार, आभार आदि है, जिनका क्षम्यता से संबंध है।
जो भिक्षु एक से अधिक बार दोष लगाता है, उसे क्षम्य नहीं माना जाता। अत एव उसका प्रायश्चित्त अनुग्रहपूर्वक कम नहीं किया जाता। इसे निरनुग्रह प्रायश्चित्त कहा जाता है। इनको समवेत कर यहाँ प्रायश्चित्त विधाओं का जो वर्णन हुआ है, वह भिक्षु को प्रमाद रहित रहते हुए अपनी निरवद्य चर्या का सम्यक् रीति से अनुसरण करते रहने की, परिपालन करते रहने की प्रेरणा प्रदान करता है।
द्वैमासिक प्रायश्चित : प्रस्थापन आरोपण : वृद्धि . सवीसइराइयं दोमासियं परिहारट्ठाणं पट्टविए अणगारे (जहा हेटा) जाव अहीणमइरित्तं, तेण परं सदसराया तिण्णिमासा॥ २७॥ . सदसरायतेमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव तेण परं चत्तारि मासा॥ २८॥
चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव तेण परं सवीसइराया चत्तारि मासा॥ २९॥
सवीसइरायचाउम्मासियं परिहारहाणं (जहा हेट्ठा) जाव तेण परं सदसराया पंच मासा॥ ३०॥
सदसरायपंचमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव तेण परं छम्मासा॥३१॥
भावार्थ - २७. दो मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन पूर्व सूत्रों की भाँति ही यहाँ ग्राह्य है) यावत् आलोचना करने पर नं कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, जिसे संयुक्त करने पर (पूर्व प्रायश्चित्त में जोड़ने पर) तीन मास एवं दस रात्रि की प्रस्थापना होती है।
२८. तीन मास तथा दस रात्रि का प्रायश्चित्त, वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन पूर्व सूत्रों की भाँति ही यहाँ ग्राह्य है) यावत् आलोचना करने पर न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, जिसे संयुक्त करने पर (पूर्व प्रायश्चित्त में जोड़ने पर) चार मास की प्रस्थापना होती है।
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