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निशीथ सूत्र
होता है। किसी अध्येता द्वारा गुरुमुख से वाचना लिए बिना स्वयं ही आगमों का वाचन, अध्ययन किया जाना इस सूत्र में प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। क्योंकि जैसा विशद, स्पष्ट तथा असंदिग्ध ज्ञान गुरुमुख से वाचना लेने से, पढने से अधिगत होता है, वैसा स्वयं वाचन करने से, स्वयं पठन करने से उपलब्ध नहीं होता। अस्पष्ट एवं अविशद ज्ञान यथेष्ट लाभप्रद नहीं होता ।
जैन परंपरा में आचार्य और उपाध्याय भिक्षुओं को वाचना देते हैं । उपाध्याय मूल पाठ की वाचना देते हैं तथा आचार्य अर्थ वाचना देते हैं। आगमों के अध्ययन में शुद्ध पाठ एवं उनके यथार्थ आशय का बोध परम आवश्यक है। क्योंकि आगम शब्द प्रधान भी हैं और अर्थ प्रधान भी हैं।
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गुरुजन के लिए वाचना न देने की स्थिति प्रायः तब आती है जब शिष्य योग्य न हो, विनीत न हो, अध्यवसायी, समयज्ञ तथा यथोचित विकास प्राप्त न हो। ऐसी स्थिति में वाचना प्राप्त करने वाले शिष्यों को चाहिए कि वे अपनी अयोग्यतामूलक कमियों को दूर करें। श्रद्धा, विनय, सेवा और समादर से गुरुजन को संतुष्ठ करें।
इस सूत्र में 'गिरं' शब्द आगमों के अर्थ में आया है। गिर का अर्थ वाणी है, जो यहाँ जिनवाणी के अर्थ में प्रयुक्त है । आगम जिनवाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए यहाँ अर्थ - संगति में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है ।
यहाँ एक समस्या उत्पन्न होती है। यदि आचार्य, उपाध्याय आदि वाचना देने वाले प्राप्त न हों तो शिष्य द्वारा क्या किया जाए ? वर्तमान काल में भी कुछ इस प्रकार की स्थितियाँ विद्यमान हैं। कतिपय गच्छों में आचार्य एवं उपाध्याय नहीं हैं। शिष्य वहाँ क्या करें? किससे वाचना लें ? क्या आगमों का अध्ययन ही न किया जाए? आगमों के अध्ययन के बिना भिक्षु जीवन की पूर्णता किस प्रकार मानी जाए ? आगमों का अध्ययन तो प्रत्येक भिक्षु के लिए परम आवश्यक है।
ऐसी स्थिति में यह संगत प्रतीत होता है, वर्तमानकाल में विद्वज्जनों द्वारा शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन, विश्लेषण सहित जो आगमों का संपादन - प्रकाशन हुआ है, जिज्ञासु, अध्ययनशील भिक्षु द्वारा गुरुजन की आज्ञा से उन्हें पढा जाना दोष नहीं। क्योंकि उनकी भावना विशुद्ध रूप में जिनवाणी का, आगमों का बोध प्राप्त करने की होती है, जिससे वे ग्रन्थों के सहयोग से अपनी प्रतिभा, मेधा एवं उद्यम द्वारा प्राप्त करते हैं।
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