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निशीथ सूत्र
जायते इति पात्रम्' जो अपने में डाली हुई वस्तु को गिरने से बचाता है या अपने में सुरक्षित रखता है, उसे पात्र कहा जाता है। जो पात्र या बर्तन अखण्डित, परिपूर्ण एवं सम्यक् अवस्थित होता है, उसमें कोई भी वस्तु रखी जाएं वह नीचे नहीं गिरती, सुरक्षित रहती है, उसी प्रकार जो भिक्षु दी गई वाचना को आत्मसात करता है, स्वायत्त करता है, मन में स्थिर करता है, वह वाचना के लिए पात्र है। जो मानसिक चंचलता, अस्थिरता, असावधानता तथा प्रमाद आदि के कारण प्रदत्त वाचना को सुस्थिर नहीं रख पाता, उसे अपात्र कहा गया है।
बृहत्कल्प सूत्र के चौथे उद्देशक में वाचना लेने योग्य भिक्षु के तीन गुणों की चर्चा है। वह विनीत हो, विगय त्यांगी हो, - रसादि लोलुप न हो या संयताचारी हो तथा कषाय-क्लेश आदि को शीघ्र ही उपशान्त करने में सक्षम हो। जिसमें ये गुण होते हैं, वहीं वस्तुतः वाचना देने योग्य है।
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ऋग्देव भाष्य भूमिका में इस संबंध में बड़ा ही सुन्दर उल्लेख हुआ है विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम, गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि । असूयकायाऽनृजवेऽयताय, न मां ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् ॥
अर्थात् विद्या ब्राह्मण ज्ञानी पुरुष के पास आई और बोली - मेरी रक्षा करना, मैं तुम्हारी निधि हूँ। ऐसे व्यक्ति को मत देना जो ईर्ष्यालु हो, अनृजव - कुंटिल या अविनीत हो तथा असंयत हो । यदि ऐसा करोगे तो मैं शक्तिशालिनी बनूंगी।
वाचना देने में योग्य-अयोग्य के संदर्भ में यहाँ पात्रता के साथ-साथ व्यक्त और अव्यक्त का भी उल्लेख हुआ है। ये दोनों शब्द आयुष्य परिपक्वता की दृष्टि से है। अर्थात् वाचना लेने वाला बहुत छोटी आयु का न हो। वह सवयस्क हो । दैहिक दृष्टि से विकसित हो। क्योंकि दैहिक विकास के साथ मानसिक विकास का भी संबंध है।
इसका अभिप्राय यह है कि वाचना लेने वाला वय की दृष्टि से और विनयादि गुणों की दृष्टि से योग्य हो। इन दोनों प्रकार की विशेषताओं से युक्त भिक्षु वाचना को भलीभाँति स्वायत्त करता है, सार्थक बनाता है।
वाचना प्रदान में पक्षपात का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू दोन्हं सरिसगाणं एक्कं सं ( सि )चिक्खावेइ एक्कं ण संचिक्खावेइ एक्कं वाएइ एक्कं ण वाएइ तं करतं वा साइज्जइ ॥ २३ ॥
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