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निशीथ सूत्र
१८. जो भिक्षु नवब्रह्मचर्य संज्ञक अध्ययन की वाचना दिए बिना पश्चात् अध्यापनीय (छेदादि) सूत्रों की (पूर्व) में वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। ...
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। "
विवेचन - उपर्युक्त सूत्रों में से प्रथम में हेट्ठिल्ल - अधस्तन, उरिल्ल - उपरितन एवं समोसरण - समवसरण शब्द का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है।
समोसरण - समवसरण शब्द 'सम' एवं 'अव' उपसर्ग तथा भ्वादिगण और जुहोत्यादिगण में पठित परस्मैपदी 'स्' धातु के योग से बना है। उसका अर्थ भलीभाँति सुव्यवस्था पूर्वक चारों ओर विस्तार के साथ अवस्थित होना है, जैसा धर्मोपदेश श्रवण के समय होता है। भगवान् महावीर स्वामी जहाँ धर्मदेशना देते थे उसका समवसरण के रूप में वर्णन हुआ है। भगवान् के पदार्पण के लिए 'समोसरिए - समवसृतः' पद का प्रयोग हुआ है।
समवसरण में दी जाने वाली धर्मदेशना में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर , निर्जरा एवं मोक्ष आदि तत्त्वों का उपदेश होता है। अतः उन आगमों को भी समवसरण कहा जाता है, जिनमें इन विषयों का वर्णन होता है। आधाराधेय भाव के कारण यह अर्थ यहाँ घटित होता है।
हेट्ठिल का अर्थ अधस्तन - निम्नवर्ती, नींव रूप - मूल पृष्ठभूमि रूप है। उवरिल्ल का अर्थ उनसे भिन्न अन्य आगम है, जो उनके आधार पर विकसित और विस्तृत हुए हैं। ___ जिस प्रकार कोई भी बड़ा प्रासाद या भवन तभी सुदृढ होता है जिसका अधस्तन भाग या नींव अत्यंत दृढ तथा मजबूत हो। अत एव स्थापत्य में नींव की दृढता और प्रबलता पर बहुत जोर दिया गया है। नींव अत्यंत दृढ हो तो उस पर चाहे कितनी ही मंजिलों का निर्माण हो, कोई खतरा नहीं होता। नींव यदि दुर्बल या कमजोर होती है तो ऊपर की मंजिलें निरापद नहीं होती। इसीलिए नव ब्रह्मचर्य अध्ययन की वाचना को हेट्ठिल या नींव रूप माना गया है। इन आगमों की वाचना लेने, आत्मसात करने से भिक्षु संयम में अत्यंत स्थिर हो जाता है, उसकी आध्यात्मिक आस्था सुदृढ और सर्वथा अविचल बन जाती है। उसकी मनोवृत्ति सदैव वैराग्यमयी रहती है। सांसारिक वांछा, कामना, वासना से वह सर्वथा दूर रहता है। इसीलिए पश्चात् अध्येय, अध्ययनीय - छेद सूत्र उवरिल्ल - उपरितन समवसरण में परिगणित हुए हैं। अर्थात् नवब्रह्मचर्य अध्ययन के पश्चात् ही उनकी वाचना का आदान-प्रदान किया जाना
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