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निशीथ सूत्र
मादकता भी होती है। किन्तु रुग्णावस्था में इनका सीमित प्रयोग अविहित नहीं है । इसीलिए
यहाँ तीन दत्ति से अधिक लेने का परिवर्जन है।
"ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के पांचवें अध्ययन में शैलक राजर्षि के वर्णन में 'मापाणगं शब्द से - द्राक्षासव द्राक्षारिष्ट आदि औषधियों के सेवन का उल्लेख हुआ है। अतः 'वियड' शब्द से इस प्रकार की औषधियाँ तथा केसर, कस्तूरी, अम्बर, अफीम आदि बहुमूल्य एवं मादक पदार्थों को समझना चाहिए । रोग आदि कारणों से उपर्युक्त पदार्थों को साधु मर्यादा के अनुसार ग्रहण करना शास्त्र निषिद्ध नहीं है। प्रसिद्ध मदिराओं (देशी या अंग्रेजी शराबों) के ग्रहण का तो निषेध ही समझना चाहिए। क्योंकि आगमों में अनेक स्थलों पर उनका निषेध किया गया है एवं उन्हें 'नरक गति' का हेतु बताया गया है।"
यहाँ प्रपाणक के क्रय आदि का जो वर्णन हुआ है, उसका अभिप्राय उसी प्रकार का है, जैसा पात्र एवं वस्त्र के क्रय आदि का है।
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विडय - विकृत के रूप में प्रपाणक का यहाँ विशेष रूप से इसलिए वर्णन हुआ है कि सामान्यतः आसव आदि का भिक्षु द्वारा प्रयोग नहीं किया जाता। अत एव अपरिहार्य आवश्यकता बिना भिक्षु प्रपाणक रूप औषधि प्राप्त करने की दिशा में उद्यत न रहे, यह वांछनीय है। क्रय आदि का विशेष रूप से उल्लेख आसक्ति वर्जन की दिशा में प्रेरणा प्रदान करने
चतुर्विध संध्याओं में स्वाध्याय संबंधी प्रायश्चित्त
जे भिक्खू चउहिं संझाहिं सज्झायं करेइ करेंतं वा साइज्जइ, तंजहापुव्वाए संझाए पच्छिमाएं संझाए अवरण्हे अङ्कुरत्ते ॥ ८ ॥
कठिन शब्दार्थ - चउहिं चारों ही, संझाहिं संध्याओं में, सज्ञार्य स्वाध्याय सूत्र पठन-पाठन आदि कार्य, अवरण्हे - अपराह्न अड्डरत्ते - अर्द्धरात्रि में ।
भावार्थ - ८. जो भिक्षु चारों ही संध्याओं में स्वाध्याय करता है या स्वाध्याय करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
ये संध्याएँ - पूर्व संध्या, पश्चिम संध्या, अपराह्न तथा अर्द्धरात्रि के रूप में चार प्रकार की कही गई हैं।
विवेचन इस सूत्र में चारों संध्याओं में स्वाध्याय करना प्रायश्चित योग्य बतलाया गया है।
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