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अष्टादश उद्देशक - नियम विरुद्ध वस्त्र ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त
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इस प्रकार उपर्युक्त ८८ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को उद्घातिक परिहार-तप रूप लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में अष्टादश उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
विवेचन - चतुर्दश उद्देशक में पात्र के संदर्भ में जो वर्णन हुआ है, यहाँ वैसा ही वर्णन वस्त्र के संबंध में आया है। जिस प्रकार पात्र का क्रम आदि निषिद्ध है, वैसा करना प्रायश्चित्त योग्य है, वही बात वस्त्र पर लागू होती है।
पात्र एवं वस्त्र विषक जो प्रायश्चित्त योग्य वर्णन आया है, वह भिक्षु को संयम के अक्षुण्ण पालन में जागरूक बनाए रखने हेतु है। पात्र एवं वस्त्र आदि प्राप्त करना केवल उस शरीर की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु है, जो संयम का साधनभूत है। वहाँ तो एक मात्र प्रमुखता व्रताराधनामय जीवन के सम्यक् संवहन की है। इसलिए पात्र, वस्त्र आदि की प्राप्ति में भिक्षु वैसा कोई उद्यम नहीं करता जो उसकी साधना सम्मत्त चर्या के विपरीत हो। भिक्षु सर्वथा अपरिग्रही होता है अत: वस्त्र के क्रय करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, फिर जो यहाँ वस्त्र क्रय की बात कही है, उसका आशय यह है कि जब किसी भिक्षु के मन में वस्त्र के प्रति आसक्ति हो जाए तो वह अपने प्रभाव का दुरुपयोग कर किसी अन्ध-श्रद्धालु से मूल्य चुकवा कर वस्त्र ले सकता है, जो सर्वथा अनुचित है, शास्त्र विरुद्ध है, दोष युक्त है।
भिक्षु भी इस माया मोहमय संसार में रहता है, यद्यपि उसकी मनोभूमिका उससे अतीत होती है पर यदि कदाचन उससे यत्किंचित प्रभावित होकर उसके मन में वस्त्र आदि के प्रति कुछ आसक्ति हो जाए तो इस प्रकार के दूषित उपक्रम आशंकित हैं। अत एव यहाँ एतद्विषयक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
॥ इति निशीथ सूत्र का अष्टादश उद्देशक समाप्त॥
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