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अष्टादश उद्देशक - नौका विहार विषयक प्रायश्चित्त
नौका प्रयोग में भी यह सिद्धान्त सर्वथा लागू होता है। यदि नाविक स्वेच्छा से आध्यात्मिक सेवा के भाव से भिक्षु को नौका प्रयोग की सानुरोध स्वीकृति देता है तभी भिक्षु उसमें बैठ सकता है, जा सकता है।
भिक्षु तो सर्वथा अपरिग्रही होता है। अतः उस द्वारा नौका खरीदा जाना, किराए पर लिया जाना संभव ही कहाँ है ? फिर भी यदि वह अपने किसी श्रद्धालु अनुयायी द्वारा ऐसा करवाए तो वह भी दोषयुक्त है।
यह स्पष्ट है कि नौका विहार अप्कायिक जीवों की घोर हिंसा को हेतु है, अतः नौका परिचालन, सरंक्षण आदि में भिक्षु किसी भी प्रकार का भाग नहीं लेता, न किसी अन्य को अपनी ओर से भाग लेने की प्रेरणा ही देता है । वह तो सर्वथ निःस्पृह एवं आत्मस्थ रहता है। जैसी कि इस प्रसंग में वर्णित हुआ है, यदि नौका में छेद हो जाए, पानी भरने लगे, उसे उलीच- उलीच कर फैंकना पड़े तो भी भिक्षु उसनें सहयोगी नहीं होता, क्योंकि इसमें अप्काय का विपुल विघात स्पष्ट है। यदि अपने महाव्रतानुगत संयममय जीवन की रक्षा में भिक्षु के प्राण भी चले जाएँ तो उसके लिए कोई चिन्ता की बात नहीं है ।
जैसा कि आचारांग सूत्र में प्रतिपादित हुआ है, भिक्षु जब नौका पर सवार होने के लिए नदी के तट पर पहुँचे तब वह अशन-पान-खाद्य- स्वाद्य रूप चतुर्वित आहार का त्याग करके सागारी संथारा स्वीकार कर ले, वह अपने साथ जरा भी आहारादि न रखे, अपने वस्त्रपात्रादि को एक साथ बांध ले ।
ऐसी स्थिति में नौका में स्थित लोगों से आहार- पानी आदि लेने का विकल्प ही नहीं रहता । अत एव इन सूत्रों में तद्विषयक परिवर्जन की बात कही गयी है और वैसा करना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
उपर्युक्त सूत्र में " जोयण एवं अद्धजोयण" ये दो शब्द दिए गए हैं, इसका तात्पर्य यह है कि सामान्य रूप से तो अर्ध योजन से अधिक चलने वाली नावा में भी नहीं जाना चाहिए, किन्तु अत्यन्त विकट स्थिति में कभी अनिवार्य रूप से जाने का प्रसंग आ जाए तो भिक्षु एक योजन चलने वाली नावा में जा सकता है, किन्तु एक योजन से अधिक जाने वाली नावा का तो उसे पूर्णतया वर्जन करना चाहिए ।
नौका विहार में भी अप्काय की हिंसा से अधिकाधिक बचा जा सके, भिक्षु का ऐसा
आचारांग सूत्र
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