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सप्तदश उद्देशक - शीतकृत आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त
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विवेचन - भिक्षु की आहारचर्या सर्वथा निरवद्य और जीवविराधना रहित हो, इस तथ्य पर चर्या विषयक वर्णन में बहुत जोर दिया गया है। उसका प्रयत्न रहे कि एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त किसी भी जीव को उससे पीड़ा - उद्वेजना प्राप्त न हो। एकेन्द्रिय जीवों की तो ऐसी प्रवृत्ति है कि स्पर्श मात्र से वे अत्यन्त पीड़ित हो उठते हैं। अभिव्यक्ति में सक्षम न होने के कारण हम उस पीड़ा का अनुभव नहीं कर सकते किन्तु सर्वज्ञों की दृष्टि में वह साक्षात् ज्ञप्ति योग्य है।
अत एव यहाँ पृथ्वी, जल, अग्नि आदि एकेन्द्रिय जीवों पर निक्षिप्त-रखे हुए आहार को लेना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। निक्षेप से संबद्ध होने के कारण इसे निक्षिप्त दोष से । अभिहित किया गया है।
यद्यपि समग्र प्राणी वर्ग की हिंसा का वर्जन प्रथम महाव्रत में आ ही जाता है, किन्तु भिक्षु जीवन में अत्यधिक जागरूकता बनी रहे इसे हेतु भिन्न-भिन्न क्रिया-प्रक्रिया में आशंकित हिंसा से बचे रहने के उद्देश्य से पृथक्-पृथक् वर्जन किया गया है।
__ आचारांग टीका में निक्षिप्त दोष के निषेध से एषणा के दस ही दोषों का निषेध समझ लेने का कर्थन किया है। क्योंकि ये सभी दोष आहार ग्रहण करते समय पृथ्वी आदि की विराधना से संबंधित है, इसलिए उन दसों दोषों का प्रायश्चित्त भी इसी सूत्र में समझा जा सकता है।
शीतकृत आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू अच्चुसिणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सुप्पेण वा विहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फूमित्ता वीइत्ता आहटु देजमाणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइजइ॥ २४८॥
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उसिणुसिणं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइजइ॥ २४९॥
. कठिन शब्दार्थ - अच्चुसिणं - अति उष्ण - अत्यन्त गर्म, सुप्पेण - सूप से, विहुयणेण - विधुनेन (व्यजनेन) - पंखे से, तालियंटेण - ताड़पत्र के पंखे से, पत्तभंगेण
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