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चतुर्दश उद्देशक - पात्र क्रयादि विषयक प्रायश्चित्त
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इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु के अपने खान-पान के लिए स्वनिश्रित काठ, तुम्बिका आदि के पात्र होते हैं, जिन्हें वह गृहस्थ से भिक्षा के रूप में प्राप्त करता है। उन्हीं पात्रों से वह अपने खान-पान आदि सभी कार्य संचालित करता है। उसका जीवन संतोषयुक्त होता है। किसी वस्तु के प्रति मन में लालसा, आकांक्षा नहीं होती। केवल अनिवार्य आवश्यकतापूर्ति का ही भाव होता है। इसलिए पात्रों की सुन्दरता, बहुमूल्यता आदि की ओर उसका जरा भी ध्यान नहीं होता। क्योंकि वैसा होते ही उसके संयंताचरण में अनेक दोष लगते हैं। .
भिक्षु के मन में पात्रों के प्रति कभी कोई आकर्षण या मोह उत्पन्न न हो जाए, इस हेतु इन सूत्रों में पात्रों के क्रयादि करने, कराने आदि को प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है।
यद्यपि भिक्षु के पास किसी वस्तु का क्रय करने हेतु कोई नगद राशि नहीं होती, किन्तु यदि उसके मन में पात्रादि वस्तु के प्रति आकर्षण उत्पन्न हो जाए तो वह अपने प्रति अनुराग रखने वाले गृहस्थ को कहकर विक्रेता को उसका मूल्य दिला देता है, पात्र स्वयं ले लेता है।
इसी प्रकार पात्र उधार लेने और बदलने आदि के प्रसंग हैं। - इन तीनों दोषों के लगने में भिक्षु कारण रूप है, ये अपरिग्रह महाव्रत के अतिचार
रूप हैं।
भिक्षु के प्रति अनुरागवश किसी अन्य व्यक्ति से छीनकर लाए हुए, जिस पात्र पर अनेक व्यक्तियों का स्वामित्व हो, उनकी स्वीकृति बिना, घर आदि से लाए हुए - यों दिए जाते हुए पात्र को जो भिक्षु लेता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
छीन कर लाए हुए पात्र को लेना प्रथम अहिंसा महाव्रत का तथा तृतीय अचौर्य महाव्रत का अतिचार रूप दोष है।
अनिश्रित - अनेक स्वामियों के पात्र को उनसे पूछे बिना किसी एक व्यक्ति द्वारा दिए जाते हुए को लेना तृतीय - अचौर्य महाव्रत का अतिचार रूप दोष है।
अभिहत - घर आदि से ला कर दिए जाते हुए पात्र को लेना प्रथम अहिंसा महाव्रत का अतिचार रूप दोष है क्योंकि घर आदि से उपाश्रय आदि से ला कर देने में अनेक जीवों की विराधना, हिंसा होती है। .
इन तीनों दोषों के लगने में प्राथमिक कारणता गृहस्थाश्रित है। ये छहों दोष ऐषणा समिति के उद्गम दोष प्रतिपादित हुए हैं।
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