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निशीथ सूत्र
जैन साधु का जीवन तो बहुत उच्च होता है। उसके संदर्भ में तो ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ये मंत्रादि प्रयोग भोग, वासना, कीर्ति, राग, द्वेष, रोष, प्रतिशोध - इत्यादि हेतु किए जाते हैं, जिनसे जैन भिक्षु का तो दूर तक का प्रयोजन नहीं होता । किन्तु जैन साधु है तो एक मानव ही कदाचन यशोभिलाषा, धर्मप्रभावना एवं मानसिक दौर्बल्यवश कामादिकांक्षा के वशीभूत होकर साधु. ऐसे कृत्यों में न पड़ जाए एतदर्थ तदानीन्तन ( उस समय की) कलुषित विद्याओं के वैविध्यपूर्ण रूपों का वर्णन कर उनमें लगना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। मार्गादि बताने का प्रायश्चित्त
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जे भिक्खू अण्णउत्थियाण वा गारत्थियाण वा णट्ठाणं मूढाणं विप्परियासियाणं वा मग्गं वा पवेएइ संधिं वा पवेएइ ( मग्गाओ वा संधि पवेएइ) संधीओ वा मग्गं पवेएइ पवेएंतं वा साइज्जइ ॥ २८ ॥
कठिन शब्दार्थ - णट्ठाणं- पथभ्रष्टों को, मूढाणं - दिङ्मूढ - दिशा भटके हुए, विप्परियासियाणं - विपरीत मार्ग में गए हुए, मग्गं - मार्ग, पवेएइ प्रवेदयति - बतलाता है, संधिं दो या अनेक मार्गों के मिलने का स्थान ।
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भावार्थ - २८. जो भिक्षु पथभ्रष्ट हुए, दिशा भटके हुए या विपरीत मार्ग में गए हुए अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को मार्ग या संधि - मार्गों के मिलने का स्थान बतलाता है (अथवा मार्ग से संधि बतलाता है), संधि से मार्ग बतलाया है या बतलाने वाले का अनुमोदन करता हैं, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैन भिक्षु का ऐहिक, लौकिक कार्यों में सांसारिकजनों के साथ कोई संबंध नहीं होता। वे क्या कर रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं, इससे उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। क्योंकि दोनों के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं । इसीलिए यहाँ जैन भिक्षु द्वारा अन्यतीर्थिकों या गृहस्थों को उन द्वारा मार्ग के विषय में पूछे जाने पर कुछ भी कहना कल्पनीय नहीं कहा गया है। यदि प्रसंगवश कहना भी पड़े तो हित-अहित के चिंतनपूर्वक मार्ग या संधि बतानी चाहिए ।
यहाँ जो निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि यदि मार्ग बताने में भूल हो जाए तो उस पर जाने वाले भटक सकते हैं, उन्हें संकट उत्पन्न हो सकता है। यदि जाने वाले दस्यु आदि हों तो वे उधर जाकर जो पापात्मक कृत्य करते हैं, उनका दोष उसे लगता है। इसके अलावा भिक्षु द्वारा रास्ता बताने में उनके गमन का अनुमोदन है जो यतनापूर्वक न होने से सावध है।
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