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त्रयोदश उद्देशक - अनावृत उच्च स्थान पर खड़े रहने आदि का प्रायश्चित्त
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दैनिक क्रियाओं में जरा भी असावधानी हो जाए तो सूत्रोक्त प्राणी उत्क्लेशित, उत्पीड़ित, आहत होते हैं। एदद्विषयक जागरूकता हेतु इस सूत्र में 'दुर्बद्धं सुबद्धं भवति' के अनुसार पुनः साधु को हिंसा से सदैव पृथक् रहने की प्रेरणा दी है। .
अनावृत उच्च स्थान पर खड़े रहने आदि का प्रायश्चित्त जे भिक्खू थूणंसि वा गिहेलुयंसि वा उसु( का )यालंसि वा कामजलंसि वा दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइए चेएंतं वा साइजइ॥ ९॥
जे भिक्खू कुलियंसि वा भित्तिसि वा सिलसि वा लेलुंसि वा अंतरिक्खजायंसि वा दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइए चेएंतं वा साइज्जइ॥ १०॥ . जे भिक्खू खंधंसि वा फलिहंसि वा मंचंसि वा मंडवंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मतलंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतरिक्खजायसि दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइए चेदंतं वा साइजइ॥ ११॥
कठिन शब्दार्थ - थूणसि - स्तंभ, गिहेलुयंसि - देहली, उसु(का)यालंसि - ऊखल, कामजलंसि - स्नानादि में प्रयोक्तव्य पीठ, फलक आदि, दुब्बद्धे - दुर्बद्धं - भलीभाँति न बंधा हुआ, दुण्णिक्खित्ते - सम्यक् स्थापित न किया हुआ, अणिकंपे - निष्कंप रहित - कंपनयुक्त, चलाचले - अस्थिर, कुलियंसि - तृणादि से निर्मित अस्थायी दीवार (बाड़ आदि), अंतरिक्खजायंसि - अंतरिक्षजात - आकाशीय अनावृत्त स्थल मंच आदि, खंधंसि - स्कंध - कोट, पीठिका या स्तम्भगृह आदि, मालंसि - गृह के ऊपर स्थित खुले तल आदि पर, हम्मतलंसि - पुरानी हवेली के तल पर (ऊपरी स्थान)।
• भावार्थ - ९. जो भिक्षु भलीभाँति नहीं बंधे हुए, सम्यक् स्थापित न किए हुए, कंपनयुक्त या अस्थिर स्तंभ, देहली, ऊखल, पीठ (फलक) आदि पर (जानते हुए भी) खड़े होने, सोने या बैठने आदि क्रियाएँ करता है अथवा ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। ..
१०. जो भिक्षु भलीभाँति नहीं बंधे हुए, अस्थापित, कंपनयुक्त या अस्थिर तृणादि निर्मित दीवार, भित्तिका, शिलाखण्ड, पत्थर के ढेले आदि अनावृत स्थान (मंच आदि) पर (जानते
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