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निशीथ सूत्र
२. गिर पड़ने से अंगोपांग का टूट जाना या अन्य प्राणियों की विराधना होना। ३. लोक व्यवहार में अनुचित, अशोभन प्रतीत होना आदि।
गृहस्थों के पात्र में आहार करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू गिहिंमत्ते भुंजइ भुंजंतं वा साइजइ॥ १०॥ कठिन शब्दार्थ - गिहिमत्ते - गृहस्थ का पात्र।
भावार्थ - १०. जो भिक्षु गृहस्थ के पात्र में आहार करता है या आहार करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु संयमित, व्यवस्थित, अपरिग्रहयुक्त जीवन जीता है। शास्त्रविहित वस्त्र, पात्रादि सीमित उपकरण रखता है। इससे इच्छाओं का संयमन होता है। ऐहिक, भौतिक आसक्ति का सहज ही परिवर्जन होता है। अत एव वह अपने ही पात्र में भिक्षा लेता है, अपने ही पात्र में खाता है, विधिपूर्वक निरवद्य रूप में पात्र का प्रक्षालन, स्वच्छीकरण करता है।
गृहस्थ के पात्र में भोजन करना इसलिए वर्जित है कि उसमें पूर्वकृत और पश्चात्कृत दोनों ही दोषों का आसेवन होता है। गृहस्थ के पात्रादि तैयार होने में आरंभ-समारंभमूलक हिंसा होती है जो पूर्वकृत दोष में परिगणित है। साधु के आहार करने के पश्चात् गृहस्थ द्वारा सचित्त जल से साफ किया जाना एवं असावधानी से पानी को फेंका जाना आदि से जीवों की विराधना आशंकित है, जो पश्चात्कृत दोष में आती है। ___दशवकालिक सूत्र में यह स्पष्ट रूप में उल्लेख है कि कांस्य, मिट्टी आदि किसी भी प्रकार के गृहस्थ के पात्रों में आहार करता हुआ भिक्षु अपने आचार से भ्रष्ट हो जाता है।
उपर्युक्त सूत्र में जो 'भुजई' शब्द आया है। वह संस्कृत की 'भुजि' धातु से बना हुआ रूप है। जिसका अर्थ है - 'भुजिपालनाभ्य व्यवहारयो' अर्थात् 'भुज' धातुपालन करने और उपयोग में लेने के अर्थ में आती है। इसलिए यहाँ अर्थ होता है - गृहस्थ के पात्र (बर्तन) को अपने उपयोग में लाना। जैसा कि दशवैकालिक सूत्र के दूसरे अध्ययन की दूसरी गाथा में बताया गया है कि -
'वत्थगंध मलंकार, इत्थीओ सयणाणि य। अच्छंदा जे ण भुजति ण से चाइति वुच्चइ॥ २॥
पण या
.दशवकालिक सूत्र अध्ययन ६, गाथा - ५१-५३.
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