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निशीथ सूत्र
औचित्य-अनौचित्य का जरा भी ध्यान न रखता हुआ जो उसी के अनुसार प्ररूपणा करे, कार्य करे, उसे यथाछन्द कहा जाता है। ऐसा करना उच्छंखलता और उदंडता के अन्तर्गत आता है, जो भिक्षु के लिए सर्वथा परिहेय एवं परित्याज्य है।
भिक्षु अनुशासनप्रिय, संयताचारी तथा नियमोपनियमजीवी होता है। मनमानी प्ररूपणा करना, आचरण करना सर्वथा वर्जित है।
इस प्रकार के स्वेच्छाचारी, अनुशासनविहीन भिक्षु की प्रशंसा करना, उसको वन्दना करना प्रस्तुत सूत्रों में गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है। वैसा करने से उसकी स्वेच्छाचारिता को प्रोत्साहन मिलता है, अनुशासनहीनता की वृद्धि होती है, अनुशासन प्रधान धार्मिक वातावरण दूषित होता है।
अयोग्य प्रव्रज्या विषयक प्रायश्चित्त । ___ जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं पव्वावेइ पव्वावेंतं वा साइजइ॥ ८७॥
जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अणलं उवट्ठावेइ उवट्ठावेंतं वा साइज्जइ॥ ८८॥
कठिन शब्दार्थ - णायगं - ज्ञातक - स्वजन - पारिवारिक व्यक्ति, अणायगं - अज्ञातक - अन्यजन, उवासगं - उपासक - श्रावक, अणुवासगं - अनुपासक - श्रावकेतर अन्यतीर्थिक, अणलं - अपर्याप्त - दीक्षा के अयोग्य, पव्वावेइ - प्रव्रजित - दीक्षित करता है, उवट्ठावेइ - उपस्थापित करता है - छेदोपस्थापनीय चारित्र में उपस्थापित करता है। ___ भावार्थ - ८७. जो भिक्षु दीक्षा के लिए अयोग्य स्वजन, परजन, उपासक या अनुपासक को प्रव्रजित करता है - दीक्षित करता है अथवा प्रव्रजित करते हुए का अनुमोदन करता है।
८८. जो भिक्षु दीक्षा के लिए अयोग्य स्वजन, परजन, उपासक या अनुपासक को छेदोपस्थापनीय चारित्र में उपस्थापित करता है अथवा उपस्थापित करते हुए का अनुमोदन करता है।
इस प्रकार उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जो जिस कार्य या क्षेत्र के लिए योग्य होता है, वही उसमें सफल हो सकता है। भिक्षु-प्रव्रज्या या श्रमण दीक्षा एक ऐसा कठोर व्रताराधनामय क्षेत्र है, जिसमें
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