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दशम उद्देशक - आए हुए अन्न जल सहित उद्गार को वापस.....
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मुँह में आए हुए उद्गार को जो वापस निगल जाता है, गिट लेता है, वह रात्रिभोजन का प्रतिसेवी होता है। जो उसे वापस निगल लेता है अथवा निगलते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैन धर्म सम्मत जीवनवृत्ति या चर्या में सर्वत्र बहुत ही सूक्ष्मता परिलक्षित होती है। यह सूत्र उसी का प्रमाण है।
जैन भिक्षु जैसा पहले व्याख्यात किया गया है, रात्रिभोजन का सर्वथा त्यागी होता है। इस नियम का वह प्राणपण से पालन करता है। प्राण भी चले जाए तो भी वह रात में आहार-पानी नहीं लेता। इसी का एक सूक्ष्म रूप इस सूत्र में परिदर्शित है।
अधिक भोजन किए जाने पर या भोजन का पाचन न होने पर मँह में अन्न-जल सहित उद्गार आ सकता है। वहाँ दो स्थितियाँ उत्पन्न होती है। एक तो उसे यथाविधि बाहर थूक देने की, दूसरी वापस निगल जाने की। ___यदि दिन में उद्गार आए तो दोनों ही स्थितियों में कोई दोष नहीं लगता। क्योंकि दिवा भोजन का भिक्षु को सामान्यतः त्याग या प्रत्याख्यान नहीं होता।
रात्रि में या संध्या के समय यदि उद्गार आए तो उसे बाहर निकाल देना आवश्यक है, · उचित है। यदि भिक्षु उसे वापस निगल जाता है तो उसे रात्रिभोजन का दोष लगता है।
क्योंकि उसे निगल जाना एक प्रकार से रात्रिभोजन का ही प्रतिसेवन है। .आमाशय से बाहर मुख में आए हुए अन्न-जल के कणों को वापस निगलना चाहे अति सूक्ष्म ही सही किन्तु है तो एक प्रकार से अन्न जल का सेवन ही। अतः उसे वापस कदापि नहीं निगलना चाहिए, यथाविधि यतनापूर्वक अचित्त स्थान में थूकना चाहिए, परिष्ठापित करना चाहिए। - यहाँ इतना और ज्ञातव्य है, यदि उद्गार कण्ठ या गले तक आकर वापस आमाशय में चला जाए तो वहाँ भिक्षु को कोई दोष नहीं लगता, क्योंकि वैसा होने में उसका कोई प्रयत्न नहीं है, सहज रूप में वैसा होता है।
इस सूत्र से यह भी प्रतिबोध्य है कि भिक्षु को आहार उतनी ही मात्रा में करना चाहिए, जितना उसका आमाशय सहजतया आसानी से पचा सके।
निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में इस संबंध में बड़ा ही सुन्दर उल्लेख हुआ है। वहा कहा गया है - जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंद डालते ही तत्काल वह अस्तित्व हीन हो जाती है उसी प्रकार साधु उतना ही भोजन करे जो जठराग्नि द्वारा यथासमय नैसर्गिक रूप में पचाया जा सके।
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