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.. दशम उद्देशक - दिशा - अपहारादि का प्रायश्चित्त
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. कदाचन किसी भिक्षु में शिष्य प्राप्त करने की लोलुपता जागृत हो जाए, उसे लक्षित कर उपर्युक्त सूत्रद्वय के अन्तर्गत प्रथम सूत्र में किसी अन्य के शिष्य को आकर्षित कर, बहकाकर अपहृत करना दोषपूर्ण, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। ____ किसी का अपहरण बड़ा ही निंदनीय कार्य है। भिक्षु के लिए तो वह अत्यंत निंदा योग्य, घृणा योग्य है।
किसी अन्य भिक्षु के शिष्य के मन में विपरीत परिणाम उत्पन्न कर, उसके गुरु के होते, न होते अवगुण बताकर, निंदित कर उसमें अपने गुरु के या गच्छनायक के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करना तथा अपने प्रति श्रद्धा या आदर का भाव उत्पन्न करना, जिससे वह स्वयं अपने गुरु को छोड़कर उसके पास आ जाए - ये बड़े ही हीन एवं निम्न कोटि के कृत्य हैं।
भिक्षु कभी भी इस प्रकार के कार्य न करे, एतदर्थ उन कार्यों को प्रायश्चित्त के योग्य बताया है।
दिशा - अपहारादि का प्रायश्चित्त जे भिक्खू दिसं अवहरइ अवहरंतं वा साइज्जइ॥११॥ जे भिक्खू दिसं विप्परिणामेइ विप्परिणामेंतं. वा साइजइ॥ १२॥ कठिन शब्दार्थ - दिसं - दिशा।
भावार्थ - ११. जो भिक्षु किसी नवदीक्षित साधु की दिशा का अपहार करता है या अपहार करते हुए का अनुमोदन करता है।
१२.. जो भिक्षु किसी नवदीक्षित साधु की दिशा को विपरिणत करता है - विपरीत परिणामयुक्त बनाता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
. ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। • विवेचन - दिशा या दिश शब्द 'दिश्' धातु से बना है। दिश् धातु का अर्थ दिखलाने, संकेतित करने या उपदेशित (उपदिष्ट) करने के अर्थ में है।
निशीथ चूर्णि में दिशा का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए लिखा है - 'दिशा - इति व्यपदेशः, प्रव्रजनकाले - उपस्थापनकाले वा, यां आचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्स दिशा। तस्यापहारी - तं परित्यज्य अन्यं आचार्य - उपाध्यायं वा प्रतिपद्यते इत्यर्थः।'.
अर्थात् दिशा का तात्पर्य व्यपदेश या निर्देश है। प्रव्रज्या तथा उपस्थापन (बड़ी दीक्षा)
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