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नवम उद्देशक - युद्धादि हेतु संप्रस्थित प्रतिनिवृत्त राजा के यहाँ....... १९१
स्वाद्य रूप आहार करता है, मल-मूत्र परठता है या किसी दुःशीला या अनाचरण युक्ता स्त्री मैथुन विषयक अश्लील, साधु द्वारा अप्रायोग्य - प्रयोग न करने योग्य कामकथा कहता है - कामुकतापूर्ण वार्तालाप करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - राजतन्त्र में राजा को सर्वाधिकार प्राप्त थे । अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिए राजा के आवास में रक्षक, गुप्तचर, परामर्शक, संदेशवाहक दूत आदि का पूरा जमाव रहता था ताकि राजा क्षण-क्षण घटित होने वाली स्थितियों से अवगत रह सके, अपना कर्त्तव्य निर्धारित कर सके। राजा के आवास में गुप्त मन्त्रणाएँ, गोष्ठियाँ या सभाएँ भी चलती रहती थीं। तात्पर्य यह है कि राजा का आवास राजनैतिक तन्त्र से आच्छन्न रहता था ।
भिक्षु द्वारा वहाँ प्रवास किया जाना, स्वाध्याय आदि किया जाना इस सूत्र में जो वर्जित और प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है, उसका कारण यह है कि वहाँ भिक्षु को अपनी साधुचर्या या समाचारी का सम्यक् . निर्वाह करने में कदाचन बाधा उत्पन्न हो सकती है। वहाँ का वातावरण आध्यात्मिक साधनामय जीवन के अनुकूल भी नहीं होता । राजा के शासन, गोपनीय मन्त्रणा, व्यवस्था तथा राजनैतिक क्रिया-प्रक्रिया आदि में भी भिक्षु के वहाँ रहने से व्यवधान होना आशंकित है ।
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सूत्र में अनार्य नारी के साथ कामुकतापूर्ण वार्तालाप करने का जो उल्लेख हुआ है, वह तो और भी जघन्य कृत्य है । ब्रह्मचर्य की गौरवमयी साधना में प्राणपण से समर्पित भिक्षु ऐसा घिनौना कृत्य करे, यह सोचा भी नहीं जा सकता । यदि दुःसंयोगवश कुछ ऐसी स्थिति बन पड़े तो वह साधु के लिए सर्वथा अशोभनीय है। शास्त्र विहित प्रायश्चित्त द्वारा उसका परिमार्जन अपेक्षित ( वांछित - इच्छित ) है ।
• इस सूत्र में राजा के लिए 'राज-क्षत्रिय' पद का प्रयोग हुआ है, जो उसके विशेषण युक्त पद का संक्षिप्त रूप है। यहाँ 'क्षत्रियकुलोत्पन्न' के साथ 'शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय' तथा 'मूर्धाभिषिक्त विशेषण भी योजनीय हैं।
युद्धादि हेतु संप्रस्थित प्रतिनिवृत्त राजा के यहाँ आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइजाइ ॥ १३॥
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