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निशीथ सूत्र
विवेचन - इस सूत्र की शब्द संरचना से सामान्यतः किसी स्त्री को उपाश्रय में संवासित करने का अर्थ व्यक्त नहीं होता, क्योंकि स्त्री शब्द का इसमें उल्लेख नहीं है, केवल 'णायगं' 'अणायर्ग' ‘उवासर्य' तथा 'अणुवासयं' शब्दों का प्रयोग है, जो व्याकरण की दृष्टि से विशेषण है। विशेषण का प्रयोग विशेष्य - संज्ञा या सर्वनाम के साथ होना अपेक्षित होता है। अकेला विशेषण वाक्य में प्रयुक्त नहीं होता, क्योंकि उससे पूरा भाव व्यक्त नहीं हो पाता। इस सूत्र की ऐसी ही शाब्दिक स्थिति है।
किसी भी संदर्भ का अर्थ योजित करने के लिए प्रसंग को देखना आवश्यक होता है। अतः पूर्व सूत्रों में स्त्री का प्रसंग चल रहा है, तदनुसार यहाँ स्त्री का अध्याहार. करना होगा। .. __ जैसाकि पूर्वतन सूत्रों में व्याख्यात हुआ है, इस सूत्र में भी भिक्षु द्वारा रात्रि में स्त्री को अपने साथ रखा जाना दोषपूर्ण एवं प्रायश्चित्त योग्य कहा गया है।
उपर्युक्त सूत्र एवं आगे के तेरहवें सूत्र का आशय-गुरु परम्परा से इस प्रकार किया जाता है - "उपासक, अनुपासक, ज्ञातिक, अज्ञातिक के धन संरक्षण के लिये एवं उन्हें स्थान नहीं मिल रहा है, ऐसा समझ कर उन्हें आधी रात्रि या पूरी रात्रि उपाश्रय में रखे, उनकी रक्षा आदि के निमित्त उनके साथ उपाश्रय से बाहर निकले, पुनः उपाश्रय में प्रवेश करे तो गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त बताया है। क्योंकि ऐसा करने से गृहस्थों की आसक्ति-संसक्ति एवं परिचय बढ़ कर संयम विराधना की स्थिति बन सकती है।"
निशीथ भाष्य चूर्णि में तो इन दोनों सूत्रों में आये हुवे ‘णायगं वा...' आदि शब्दों का अर्थ - स्त्री से संबंधित किया है, परन्तु पूर्व परम्परा से इन शब्दों का अर्थ - 'स्त्री या पुरुष' दोनों की अपेक्षा से करने में भी कोई बाधा नहीं आती है।
रात्रि में पुरुष या स्त्री-उद्दिष्ट गमनागमन का प्रायश्चित्त - जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो. उवस्सयस्स अद्धं वा राई कसिणं वा राई संवसावेइ तं पडुच्च णिक्खमइ वा पविसइ वा णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइजइ॥ १३॥ .
भावार्थ - १३. जो भिक्षु किसी परिचिता या अपने किसी संसारपक्षीय संबंध से युक्ता, अपरिचिता या अपने किसी संसार पक्षीय संबंध से अयुक्ता, श्रमणोपासिका - श्राविका या अनुपासिका - जैनेतर मतानुयायिनी स्त्री को उपाश्रय के भीतर आधी रात तक या पूरी रात
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