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निशीथ सूत्र
कठिन शब्दार्थ - सगणिच्चियाए - स्वगणीय - अपने गण की, परगणिच्चियाए - अन्य गण की, पुरओ - पुरतः - आगे, गच्छमाणे - जाता हुआ, पिट्टओ - पृष्ठतः - पीछे, रीयमाणे - चलता हुआ, ओहयमणसंकप्पे - अपहतं मनःसंकल्प युक्त - उद्भ्रान्तचेता, दुर्विचार युक्त, चिंतासोयसागरसंपविटे - चिंता-शोक-सागर-संप्रविष्ट - चिन्ता और शोक के समुद्र में डूबा हुआ, करयलपल्हत्थमुहे - करतल-प्रन्यस्त-मुख - हथेली पर मुँह रखे हुए, अट्टझाणोवगए - आर्तध्यानोपगत - आर्तध्यान में अवस्थित।
भावार्थ - ११. जो भिक्षु अपने गण की या अन्य गण की निर्ग्रन्थिनी - साध्वी के साथ ग्रामानुग्राम - एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करता हुआ, उसके आगे गमन करता हुआ, पीछे चलता हुआ उद्घान्तचेता - दुर्विचार युक्त, भोग विषयक चिन्तन तथा दुष्प्राप्ति के कारण शोक सागर में डूबा हुआ - अत्यन्त शोकान्वित, नैराश्य - औदासीन्य के कारण व्यथा से हथेली पर अपना मुख रखे हुए आर्तध्यानोपगत - आर्तध्यान में अवस्थित होता हुआ विहार करता है या स्वाध्याय करता है, अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार करता है, उच्चार-प्रस्रवण परठता है, किसी अनार्या, निंदिताचारयुक्ता स्त्री को मैथुन विषयक, श्रमण द्वारा प्रयुक्त न किए जाने योग्य कामकथा - कामुकतापूर्ण वचन कहता है अथवा कहते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - ब्रह्मचर्य के अविचल परिपालन एवं संरक्षण की दृष्टि से भिक्षु के लिए धर्मोपदेश या भिक्षाप्रसंग के अतिरिक्त स्त्री के संपर्क में आना, उसका साहचर्य सेवन करना निषिद्ध है। साध्वी भी एक नारी है उस दृष्टि से स्वाध्याय तथा सूत्रार्थ वाचन के सिवाय भिक्षु को उसके संपर्क में नहीं रहना चाहिए।
उपर्युक्त सूत्र में स्वगण अथवा परगण की साध्वियों के साथ विहार करते समय भी आगे पीछे चलने की विधि बताई गई है, साथ में चलने की नहीं। पहुँचाने एवं लेने जाने पर साथ में विहार की स्थिति बनती है जो उपर्युक्त आगमपाठ से निषिद्ध ध्यान में आती है। साथ में गृहस्थों का होना हर समय आवश्यक भी नहीं है। साधु गृहस्थों को सूचित भी नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में एकांत स्थानों में मोह उद्भव आदि अनेक अनर्थ उत्पन्न हो सकते हैं। अतः साथ में या कुछ आगे पीछे भी नहीं जाना ही संयम साधना की विशुद्धि के लिए उचित रहता है।
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