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________________ अष्टम उद्देशक - एकाकिनी नारी के साथ आवास आदि विषयक प्रायश्चित्त १७१ ऊपर वर्णित दोष-स्थानों में से किसी भी दोष-स्थान का सेवन करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इन सूत्रों में प्राकार, आगार, गृह, शाला, अट्ट - अट्टालिका तथा यान, वाहन आदि रखने के मकानात, आश्रम, पर्यटन स्थल इत्यादि का जो वर्णन हुआ है, उससे यह सूचित होता है कि प्राचीन काल में भारतवर्ष में नगरनिर्माण, ग्रामनिर्माण, भवननिर्माण आदि के रूप में स्थापत्यकला या वास्तुकला का बहुत विकास हुआ था। यह तो स्थूल वर्णन है, ज्ञाताधर्मकथा आदि सूत्रों में जो स्थापत्य विषयक सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन आया है, वह बड़ा आश्चर्यकारी है, जो इस कला के अति सूक्ष्म परिशीलन और अभ्यास का द्योतक है। वास्तुकला के संबंध में संस्कृत में प्रचुर साहित्य प्राप्त है, जिसमें मेवाड़ के महाराणा कुम्भा के प्रमुख स्थपति (मुख्य मिस्त्री) मंडन सूत्रधार द्वारा रचित प्रासाद मण्डन आदि ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ___ यहाँ तथा इससे पूर्व आए वर्णन से यह स्पष्ट है कि भारत में पथिकों या यात्रियों के विश्राम की दृष्टि से धर्मशालाओं के निर्माण की विशेष प्रथा थी। लोगों में आतिथ्य - अतिथि सेवा का विशेष भाव था। यहाँ शाला शब्द धर्मशाला तथा विशाल भवन इन दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। "शालतेवैशद्येन, विस्तारेण वा द्योतते - शोभते, सा शाला" शाला शब्द 'शाल्' धातु से बना है। जो भवन अपनी विशदता या विस्तीर्णता के कारण उद्योतित या शोभित होता है, उसे शाला कहा जाता है। इस विग्रह के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मशालाएँ भी बहुत बड़ी-बड़ी बनाई जाती रही हों ताकि राहगीर वहाँ ठहर सकें, विश्राम कर सकें। इन सूत्रों के अन्तर्गत प्रथम सूत्र में आगंतागारेसु' पद का प्रयोग हुआ है, इसका संस्कृत रूप आगतागारेषु होता है। "आगतानां जनानामागाराः - आवासविश्राम स्थानानि, इति आगतागाराः, तेषु - आगतागारेषु।" इस विग्रह के अनुसार आए हुए जनों या राहगीरों के ठहरने और विश्राम करने के जो स्थान होते हैं, उन्हें आगतागार कहा जाता है। आगतागारेषु इसका सप्तमी विभक्ति का बहुवचनांत रूप है। . इन सूत्रों में से चतुर्थ सूत्र में 'दर्गसि' पद आया है, जो 'उदगंसि' का संक्षिप्त रूप है। प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार यहाँ 'उ' का लोप हो गया है। यह सप्तमी विभक्ति का एकवचन रूप है। शब्द की अभिधा शक्ति के अनुसार इसका अर्थ जल के भीतर होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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