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पंचम उद्देशक - चद्दर के धागों को लंबा करने का प्रायश्चित्त
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अन्यतीर्थिक आदि से चतर सिलवाने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो संघाडिं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सागारिएण वा सिव्वावेइ सिव्वावेंतं वा साइजइ॥ १२॥
कठिन शब्दार्थ - संघाडि - संघाटिका - चादर, सागारिएण - सागारिक - गृही, उपासक - श्रावक, सिव्वावेइ - सिलवाता है।
भावार्थ - १२. जो भिक्षु अपनी चद्दर को किसी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ या सागारिक से सिलवाता है या सिलवाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैसाकि पहले व्याख्यात हुआ है, भिक्षु का जीवन आत्म-निर्भरता और स्वावलम्बन पर अवस्थित होता है। जहाँ तक शक्य हो, वह अपने सभी कार्य स्वयं करता है। यदि कोई कार्य उस द्वारा स्वयं किया जाना संभव न हो तो वह स्वतीर्थिक - अपने गण के भिक्षु से करवाता है, क्योंकि एक गण में सभी का जीवन पारस्परिक सहयोग पर आश्रित, आघृत होता है।
भिक्षु अन्यतीर्थिक से या अपने अनुयायी श्रावक से अथवा अन्य गृहस्थ से अपना कार्य नहीं करवाता। इससे उसकी स्वावलम्बिता व्याहत होती है, पराश्रितता व्यक्त होती है, ऐसा होना अवांछित है। . . ___ इस सूत्र में चद्दर सिलवाने का वर्णन है। सिलवाने के दो प्रसंग संभावित हैं। यदि पूरी लम्बी-चौड़ी चद्दर भिक्षा में न मिली हो, छोटे टुकड़े मिले हों तो उन्हें सिलवा कर जोड़ना आवश्यक होता है ताकि वे प्रावरण का - देह ढकने का काम दे सके। यदि पूरी लम्बीचौड़ी चद्दर हो और वह फट गई हो तो उसे भी सिलवाना आवश्यक होता है, क्योंकि उसे ।
ओढने से शरीर के अंग दिखलाई पड़ते हैं, जो अनुचित हैं। अपनी चद्दर की सिलाई भिक्षु । स्वयं करे या अपने गणवर्ती साधुओं में से किसी से करवाए। यदि साधुओं को सिलाई करना नहीं आता हो तो गणवर्ती साध्वियों से सिलाई करवाई जा सकती है। उनके अतिरिक्त अन्य किसी से न करवाए। वैसा करवाना दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है।
चद्दर के धागों को लंबा करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो संघाडीए दीहसुत्ताई करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ - दीहसुत्ताई - दीर्घ सूत्र - लम्बे धागे या पतली डोरियाँ।
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