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अठारहवाँ उद्देशक - संयमी साधकों के लिए तो वैसे अप्काय जीवों की विराधना करना पूर्ण रूप से निषेध है। किन्तु विकट स्थिति में जब कोई अन्य विकल्प न हो तो उस दशा में उन्हें नौका विहार की आज्ञा दी है। साथ ही नौका विहार की कौन-सी परिस्थितियाँ होनी आवश्यक है और उसके लिए जो विधि बतलाई, तदनुसार इस अपवाद मार्ग का अनुसरण कर सकते हैं। आगम में बतलाए गए निर्दिष्ट कारणों एवं विधि का उल्लंघन करने पर इस उद्देशक में लघु चौमासी प्रायश्चित्त बतलाया गया है।
उन्नीसवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में मुख्य रूप से दो विषयों की चर्चा हुई है, प्रथम औषध सम्बन्धी, खरीद की हुई औषध को ग्रहण न करने एवं विहार में औषध साथ नहीं रखने, विशिष्ट औषध को एक दिन में तीन बार से अधिक उपयोग न करने का। दूसरा स्वाध्याय सम्बन्धी। आगम में जो ३२ अस्वाध्याय के कारण बतलाए, उस समय स्वाध्याय न करना, शारीरिक अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय करना, कालिक सूत्रों का अकाल में स्वाध्याय करना, आचारांग आदि की वाचना पूर्ण हुए बिना निशीथ आदि छेद सूत्रों की वाचना देना, अपात्र को वाचना देना, पात्र को वाचना न देना इत्यादि का निषेध किया गया है। इसका उल्लंघन करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। ___ बीसवाँ उद्देशक - जैन साधना पद्धति में निर्दोष साधना का ही महत्त्व है, दोष युक्त साधना का नहीं। फिर मानसिक, शारीरिक दुर्बलता अथवा विशेष परिस्थिति उत्पन्न होने पर साधक के द्वारा स्खलनाएं हो सकती है, उन स्खलनाओं से मुक्त होने के लिए निशीथ आदि छेद सूत्रों में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। उसके अनुसार निष्कपट भाव से बड़ों के सामने आलोचना-प्रायश्चित्त कर शुद्धिकरण कर लेना चाहिए। किन्तु जो दोष का सेवन कर उसे कपट द्वारा छिपाता है। तो इस उद्देशक में लगने वालों दोषों की सूचि देकर कपट युक्त और निष्कपट आलोचना के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान किया है। जो साधक निष्कपट भाव से आलोचना करता है उस साधक को जितना प्रायश्चित्त आता है, उससे कपट युक्त आलोचना करने वाले को एक माह का अधिक प्रायश्चित्त आता है। भगवान् महावीर स्वामी के शासन में उत्कृष्ट छह माह के प्रायश्चित्त का विधान है, इसके अधिक दोष के सेवन करने वालों के लिए नई दीक्षा का विधान है।
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