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दशवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में सर्व आचार्य की किसी प्रकार की आशातना करने का निषेध किया है। क्योंकि तीर्थंकर भगवान् की गैर मौजूदगी में आचार्य ही संघ के अनुशास्ता होते हैं। अतएव साधक का कर्त्तव्य होता है कि वह आचार्य का बहुमान करे। साथ ही अनन्तकाय युक्त, आधाकर्मी आहार, उपधि ग्रहण करने, संघ भेद डालने के लिए साधु साध्वी, दीक्षार्थी भाई-बहिन को बहकाने, गच्छ से कलह करके निकले हुए साधु के साथ आहार करने, निश्चित दिन पर्युषण न करने, अथवा अनिश्चित्त दिन पर्युषण करने, पर्युषण के दिन चौविहार उपवास एवं लोच न करने, वर्षावास में वस्त्र ग्रहण करने आदि स्थानों का उल्लंघन करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है।
ग्यारहवाँ उद्देशक - संयमी साधक के लिए मात्र तीन प्रकार में से किसी एक प्रकार के पात्र रखने की आज्ञा है। यथा - मिट्टी, तूम्बे अथवा काष्ट, इनके अलावा अन्य धातु के पात्र रखने, उसमें आहार-पानी ग्रहण करने का निषेध है। इसके अलावा इस उद्देशक में धर्म की निन्दा, अधर्म की प्रशंसा करने, गृहस्थ से सेवा लेने, दो विरोधी राज्यों के मध्य बार-बार गमनागमन करने, दिवस भोजन की निंदा एवं रात्रि भोजन की प्रशंसा करने, स्वच्छंदाचारी की प्रशंसा करने, अचेल एवं सचेल साधु को साध्वियों के साथ रहने आदि का निषेध किया है। इन दोषों का सेवन करने वालों को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
बारहवां उद्देशक - इस उद्देशक में संयमी साधक निस्पृहभाव से साधना करने का लक्ष्य रख कर किसी त्रस जीव को रस्सी से बांधने एवं बन्धन मुक्त करने का निषेध किया है। इसके अलावा त्याग लेकर बार-बार भंग करने, पांच स्थावरकाय की किञ्चित् भी विराधना करने, गृहस्थ के यहाँ बैठने, उनके पात्र का उपयोग करने, पर्यटन हेतु सुन्दर स्थल पर जाने, प्रथम पहर का आहार-पानी चौथे पहर में कान में लेने, दो कोस उपरान्त आहारपानी ले जाने आदि का निषेध किया गया है। इन निषेध प्रवृत्तियों को करने पर लघु चौमासी प्रायश्चित्त का विधान है।
- तेरहवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में संयमी साधक को सचित्त सस्निग्ध आदि पृथ्वी पर सोने, बैठने स्वाध्याय करने, गृहस्थ को किसी प्रकार की विद्या सिखाने, पानी से भरे हुए पात्र, दर्पण आदि में मुंह देखने, शरीर की पुष्टि, बुद्धि बल के लिए औषध सेवन करने, शिथिलाचारियों के साथ वंदन व्यवहार करने, उत्पादन के दोषों का सेवन कर आहार ग्रहण
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