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विपाकोदय भी दो प्रकार से होता है। एक तो बिना किसी पुरुषार्थ के स्वभाविक रूप से स्थिति पूर्ण होने पर कर्मों का उदय में आने पर वेदा जाना। दूसरा पुरुषार्थ विशेष से उदीरणा पूर्वक उदय में लाकर वेदा जाना। जैसे कितने ही फल टहनी पर ही स्वाभाविक पक कर टूटते हैं, तो कितने ही फलों को प्रयत्न करके पराल आदि में रख कर पकाये जाते हैं। दोनों ही फल पकते हैं किन्तु दोनों के पकने की प्रक्रिया पृथक्-पृथक् है। जो सहज रूप से पकता है उसके पकने का समय लम्बा होता है और जो प्रयत्न से पकाया जाता है उसके पकने का समय कम होता है। कर्मों का परिपाक भी ठीक इसी प्रकार होता है। निश्चित काल मर्यादा के बाद जो कर्म स्वाभाविक परिपाक होता है वह उदय कहलाता है और जो निश्चित काल मर्यादा से पूर्व तप-संयम शुभ योगादि द्वारा कर्म पुद्गलों को उदय में लाया जाता है, उसे उदीरणा कहा गया
हाँ, तो जीवों के शुभाशुभ कर्म बंध, उसके खुद के शुभाशुभ मन, वचन, काय की प्रवृत्ति . से होता है। दशाश्रुतस्कन्ध में बतलाया गया है.
सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति। दुचिण्णा कम्या दुचिण्णफला भवन्ति।
अर्थात्. - जीव जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसे प्राप्त होता है। शुभ कर्म का शुभ फल और अशुभ कर्म का अशुभ फल। ___ भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक १० में कालोदायी अनगार ने भगवान् से पाप और पुण्य कर्म और फल के बारे में पृच्छा की उसका भगवन्त ने इस प्रकार उत्तर फरमाया -
पाप और पुण्य कर्म और फल .. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ रायगिहाओ णयराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे गुणसिलए चेइए होत्था। तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव
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