SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन - आगामी भव की पृच्छा मृत्यु को प्राप्त होने पर वहीं सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठि के घर में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वहां पर बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होने पर तथारूप के साधुओं के पास धर्म श्रवण करेगा। धर्म सुन कर चिंतन मनन करेगा, तत्पश्चात् मुंडित होकर अगारवृत्ति को त्याग कर अनगार धर्म को प्राप्त करेगा और ईर्यासमिति युक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वहां बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर आलोचना प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर काल के समय काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होगा। तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी होने पर वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जो धनाढ्य कुल है उनमें उत्पन्न होगा वहां उसका कलाभ्यास, प्रव्रज्या ग्रहण यावत् मोक्ष गमन आदि सारा वृत्तांत दृढप्रतिज्ञ कुमार की तरह समझ लेना चाहिये। ... सुधर्मास्वामी कहते हैं कि - हे जम्बू! इस प्रकार निश्चय ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कि मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, दुःखविपाक सूत्र के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जैसा मैंने प्रभु से सुना है वैसा ही तुम से कहता हूँ। . : विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मृगापुत्र की भवपरंपरा का वर्णन किया गया है। अंत में मृगापुत्र .. का जीव प्रथम देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ के समान धनी कुल में उत्पन्न होगा और दृढ़प्रतिज्ञ की तरह ही सभी कलाओं में निष्णात होकर प्रव्रज्या ग्रहण करेगा तथा आठ कर्मों का संपूर्ण क्षय कर. मोक्ष प्राप्त करेगा। दृढ़प्रतिज्ञ का जीव पूर्वभव में अम्बड परिव्राजक के नाम से विख्यात था। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है। जिज्ञासुओं को वहां से देख लेना चाहिये। . इस प्रकार मृगापुत्र के अतीत, अनागत और वर्तमान वृत्तांत के विषय में गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने जो कुछ फरमाया उसका वर्णन करने के बाद आर्य सुधर्मा स्वामी जंबू स्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के दस अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। त्तिबेमि-'इति ब्रवीमि'-इस प्रकार मैं कहता हूँ। यहां पर इति' शब्द समाप्ति अर्थ का सूचक है तथा 'ब्रवीमि' का भावार्थ है कि मैंने तीर्थंकर देव से इस अध्ययन का जैसा स्वरूप सुना है वैसा ही तुम. से कह रहा हूँ। इसमें मेरी निजी कल्पना कुछ भी नहीं है। इस कथन से आर्य सुधर्मा स्वामी की विनीतता प्रकट होती है क्योंकि धर्मरूपी वृक्ष का मूल ही विनय है। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy