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________________ ३४ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पासइ, पासित्ता भीया ४ अम्मधाई सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! तुम एयं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि। तए णं सो अम्मधाई मियादेवीए तहत्ति एयमढें पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जेणेव विजए खत्तिए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-एवं खलु सामी! मियादेवी णवण्हं मासाणं जाव आगिइमेत्ते, तए णं सा मियादेवी तं दारगं हुंडं अंधारूवं पासइ, पासित्ता भीया तत्था तसिया उब्विग्गा संजायभया ममं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! एवं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि, तं संदिसह णं सामी! तं दारगं अहं एगंते उज्झामि उदाहु मा?॥३४॥ ___कठिन शब्दार्थ - पडिपुण्णाणं - परिपूर्ण होने पर, पयाया - जन्म दिया, आगइमित्तंआकृति मात्र, हुंडं - हुण्ड-अव्यवस्थित अंगों वाले, भीया - भय को प्राप्त हुई, अम्माधाइं - धायमाता को, उक्कुरुडियाए - उकरड़ी-कूडा-कचरा डालने का स्थान, उज्झाहि - फैंक दो, एयमढें - इस अर्थ-प्रयोजन को, तहत्ति - तथास्तु-'बहुत अच्छा' इस प्रकार कह कर, करयलपरिग्गहियं - दोनों हाथ जोड़ कर, सामी - हे स्वामिन्! संदिसह णं - आप आज्ञा दें कि क्या, एगंते - एकान्त में, उज्झामि - फैंक दूं-छोड़ दूं, उदाहु - अथवा, मा - नहीं। - भावार्थ - तदनन्तर लगभग नौ मास पूर्ण होने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले एक बालक को जन्म दिया। उस हुण्ड-अव्यवस्थित अंगों वाले जन्मांध . बालक को देख कर भयभीत, त्रस्त, उद्विग्न-व्याकुल तथा भय से कांपती हुई मृगादेवी ने धायमाता को बुला कर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये! तुम जाओ और एकांत में ले जाकर इस बालक को किसी कूडे कचरे के ढेर पर फैंक आओ।' तदनन्तर धायमाता मृगादेवी के इस कथन को तथास्तु कह कर स्वीकृत करती हुई जहां पर विजय नरेश थे वहां आई और हाथ जोड़ कर इस प्रकार निवेदन किया कि-'हे स्वामिन्! लगभग नौ मास पूर्ण होने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यावत् आकृति मात्र अवयवों वाले बालक को जन्म दिया है उस हुंड-विकृतांग-भेद्दी आकृति वाले जन्मान्ध बालक को देख कर वह भयभीत हुई और उसने मुझे बुला कर कहा कि-'हे देवानुप्रिये! तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकांत में किसी कूडे कचरे के ढेर पर फैंक आओ।' अतः हे स्वामिन्! अब आप ही बतलायें कि मैं एकांत में ले जाकर उस बालक को फैंक आऊं या नहीं?' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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