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________________ ३२ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध.. करती है, खाराणि - खारी, कडुयाणि - कटु-कड़वी, तूवराणि - कषाय रस युक्त, कसैली औषधियों को, खायमाणी- खाती हुई, पीयमाणी - पीती हुई। भावार्थ - तदनन्तर किसी काल में मध्य रात्रि के समय कुटुम्ब चिंता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय नरेश को इष्ट (प्रिय) यावत् चिंतनीय विश्वासपात्र, अनुमत (सम्मत) थी किंतु जब से मेरे उदर में यह गर्भ, गर्भरूप से उत्पन्न हुआ है तब से विजय क्षत्रिय को मैं अप्रिय यावत् अमनाम (मन से भी अग्राह्य) हो गई हूँ। इस समय विजय नरेश मेरे नाम तथा गोत्र को सुनना भी नहीं चाहते तो फिर दर्शन व परिभोग-भोग विलास की तो बात ही क्या है? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस गर्भ को अनेक प्रकार की शातनाओं (गर्भ को खण्ड खण्ड करके गिरा देने वाली क्रियाओं) से, पातनाओं (गर्भ को अखण्ड रूप से गिराने रूप क्रियाओं) से, गालनाओं (गर्भ को द्रवीभूत करके गिराने रूप उपायों) से और मारणाओं (मारने वाले प्रयोगों) से नष्ट कर दूं। वह इस प्रकार का विचार कर गर्भपात हेतु खारी, कड़वी और कषैली औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई. उस गर्भ को शातना आदि क्रियाओं (उपायों) से नष्ट कर देना चाहती है परंतु वह गर्भ उक्त.' उपायों से भी नाश को प्राप्त नहीं हुआ। मृगापुत्र की गर्भस्थ अवस्था तए णं सा मियादेवी जाहे णो संचाएइ तं गम्भ साडित्तए वा ४ ताहे संता तंता परितंता अकामिया असयंवसा तं गन्भं दुहंदुहेणं परिवहइ, तस्स णं दारगस्स गब्भगयस्स चेव अट्ठणालीओ अन्भिंतरप्पवहाओ अट्ठणालीओ. बाहिरप्पवहाओ अट्ठपूयप्पवहाओ अट्ठसोणियप्पवहाओ दुवे-दुवे कण्णतरेसु दुवे-दुवे अच्छिअंतरेसु दुवे-दुवे णक्कंतरेसु दुवे-दुवे धमणिअंतरेसु अभिक्खणं-अभिक्खणं पूर्य च सोणियं च परिसवमाणीओ-परिसवमाणीओ चेव चिटुंति॥३२॥ कठिन शब्दार्थ - अकामिया - अभिलाषा रहित, असयंवसा - विवश-परतंत्र हुई, दुईबुदण- अत्यंत दुःख से, परिवहइ - धारण करता है, अट्ठ णालीओ - आठ नाडियाँ, अन्तरप्यवहाओ - अंदर की ओर बहती है, बाहिरप्पवहाओ - बाहर की ओर बहती है, पूपप्पवहाओ - पूय-पीब बह रहा है, सोणियप्पवहाओ - शोणित-रुधिर बह रहा है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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