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________________ प्रथम अध्ययन - ईकाई रोगग्रस्त ........................................................... समणिज्जमाणे : उपार्जन करता हुआ, जमगसमगमेव - युगपद्-एक साथ ही, रोगायंका - रोगांतक-कष्ट साध्य अथवा असाध्य रोग, सासे - श्वास, कासे - कास, जरे - ज्वर, दाहेदाह, कुच्छिसूले - उदरशूल, भगंदरे - भगंदर, अरिसे - अर्श-बवासीर, अजीरतए- अजीर्ण, दिट्ठी- दृष्टिशूल (नेत्र पीड़ा), मुद्धसूले - मस्तकशूल-शिरोवेदना, अकारए -. अरुचि-भोजन की इच्छा का न होना, अच्छिवेयणा- आंख की वेदना, कण्णवेयणा - कर्ण वेदना (पीड़ा), कंडू - खुजली, उयरे - दकोदर-जलोदर-उदर का रोग विशेष, कोढे - कुष्ठ रोग।। भावार्थ - तदनन्तर वह ईकाई राष्ट्रकूट विजय वर्द्धमान खेट के राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कोटुंबिक, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के बहुत से कार्यों में, कारणों में, गुप्त मंत्रणाओं में, निश्चयों में और विवादास्पद निर्णयों में अथवा व्यावहारिक बातों में सुनता हुआ कहता है कि मैंने नहीं सुना, नहीं सुनता हुआ कहता है कि मैंने सुना है, इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी । यह कहता है कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं तथा इसके विपरीत नहीं देखे, नहीं बोले, नहीं ग्रहण किये और नहीं जाने के विषय में कहता है कि मैंने देखा है, बोला है, ग्रहण किया है तथा जाना है। इस प्रकार के मायामय (वंचना युक्त) व्यवहार को ही उसने अपना कर्त्तव्य समझ लिया था। मायाचार करना ही उसके जीवन का प्रधान कार्य और प्रजा को व्याकुल करना ही उसका विज्ञान था। इस प्रकार के आचार वाला वह अत्यधिक कलह (दुःख) का कारणीभूत पाप कर्म का उपार्जन करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। ... तदनन्तर उस ईकाई राष्ट्रकूट के किसी अन्य समय में युगपद-एक साथ ही सोलह रोगांतक (कष्ट साध्य अथवा असाध्य रोग) उत्पन्न हो गये। यथा - १. श्वास २. कास ३. ज्वर ४. दाह ५. कुक्षिशूल-उदरशूल ६. भगंदर ७. अर्श (बवासीर) ८. अजीर्ण १. दृष्टिशूल १०. मस्तक शूल (शिर वेदना) ११. अरुचि (भोजन की इच्छा न होना) १२. अक्षिवेदना १३. कर्णवेदना १४. खुजली १५. दकोदर (जलोदर) १६. कुष्ठ रोग। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ईकाई राष्ट्रकूट के जीवन का वर्णन किया गया है। उसकी प्रत्येक क्रिया मनमानी, मायापूर्ण और प्रजा के लिये अहितकर थी अतः वह दुःखों के उत्पादक अत्यंत नीच और भयानक पापकर्मों का संचय करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। "कडाण कम्माण ण मुक्ख अत्थि" - (उत्तरा० अ० ४-३) के अनुसार कृत पाप कर्मों का फल भोगना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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