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विपाक सूत्र- द्वितीय श्रुतस्कन्ध
कठिन शब्दार्थ - अड्डे - आढ्य धन धान्य से परिपूर्ण, विच्छिण्णविउल-भवणसयणासण-जाण - वाहणाइणे विस्तृत एवं बड़े-बड़े भवन, शय्या, आसनं, यान और वाहनों से युक्त, बहुधणबहुजायरूवरयए बहुत धन और स्वर्ण से परिपूर्ण, आओगपओग संपत्ते - आयोग प्रयोग से युक्त, विच्छडियपउरभत्तपाणे प्रचुर मात्रा में आहार पानी होता था, बहुजणस्स अपरिभूए बहुतजनों का माननीय, जाइसंपण्णा - जाति सम्पन्न, थेरा स्थविर, संपरिवुडा - परिवृत्त यानी घिरे हुए, पोरिसीए - पौरिसी में, झाणं झियाएइ - ध्यान किया, घरसमुदाणस्स अडमाणे घरो में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए, गिहं - घर में, अणुप्पविट्ठे- प्रवेश किया, पायपीढाओ पाद पीठ यानी आसन से, पच्त्रोरुहेड़ नीचे उतरा, पाउयाओ - पादुका यानी खडाऊ, सत्तट्ठपयाई सात आठ पैर, अणुगच्छइ सामने गया, पडिलाभिस्सामि दान दूंगा, तुट्ठे प्रमुदित, पडिलाभेमाणे - दाने देते समय, पडिलाभिए - दान देकर, दव्वसुद्धेणं - शुद्ध द्रव्य के द्वारा, दायगसुद्धेणं - दाता के शुद्ध होने से, पत्तसुद्धेणं - पात्र के शुद्ध होने से, संसारे परितीकए- संसार परित किया, वसुहारा - सोनैयों की, वुट्ठा - वर्षा हुई, दसद्धवण्णे - पांच वर्ण के, णिवाइए - वर्षा हुई, चेलुक्खेवे क - दिव्य वस्त्रों की वृष्टि, देवदुंदुहीओ आहयाओ - आकाश में देवदुंदुभी बजी, घुट्ठे - शब्द हुआ, आइक्खेड़ - कहने लगे, भासइ भाषण करने लगे, पण्णवेइ - प्रतिपादन करने लगे, परूवे प्ररूपणा करने लगे, सुकषपुण्णे पुण्यवान, कबलक्खणे - सुलक्षण, सुकयत्थरिद्धि - प्राप्त की हुई ऋद्धि सफल है।
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भावार्थ - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया कि हे गौतम! उस काल उस समय में सब द्वीप समुद्रों के मध्यवर्ती इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नाम का नगर था। वह ऋद्धि से पूर्ण समृद्ध था। इसका विशेष वर्णन उववाई सूत्र में है। उस हस्तिनापुर नगर में सुमुख नाम का गाथापति यानी सेठ रहता था। वह धन धान्य से परिपूर्ण, दीप्त और विस्तृत एवं बड़ेबड़े भवन शय्या, आसन, यान और वाहनों से युक्त था। बहुत धन और स्वर्ण से परिपूर्ण था, आयोग प्रयोग से युक्त था। उसके यहाँ आहार पानी प्रचुर मात्रा में होता था। उसके यहाँ बहुत दासी, दास, गाय भैंस, भेड़ आदि थे। वह बहुतजनों का माननीय था । उस काल उस समय में जाति सम्पन्न धर्मघोष नामक स्थविर सुधर्मा स्वामी की तरह पांच सौ साधुओं से परिवृत यानी घिरे हुए पूर्वानुपूर्वी से यानी अनुक्रम से चलते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते हुए हस्तिनापुर के सहस्राम्रवन नामक उद्यान में पधारे। पधार कर यथायोग्य अवग्रह की आज्ञा ले कर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए धर्मध्यान में विचरण करने लगे ।
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