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________________ प्रथम अध्ययन - सुबाहुकुमार की जिज्ञासा २७५ अप्पेगइया अट्ठाई हेऊइं कारणाई वागरणाइं पुच्छिस्सामो। अप्पेगइया सव्वओ समंता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो अप्पेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामो। अप्पेगइया जिणभत्ति-रागेण अप्पेगइया जीयमेयं तिकह बहाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठे मालाकडा आविद्धमणिसुवण्णा कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंब पलंबमाण कडिसुत्त सुकयसोहाभरणा पवरवत्थपरिहिया चंदणोलित्त गायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रहगया सिवियागया संदमाणिगया अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पखुब्भिय महासमुहरवभूयं विव करेमाणा हत्थिसीसस्स णयरस्स मज्झं मझेणं-णिग्गच्छति॥२०६॥ ___ कठिन शब्दार्थ - तण्णं - इसलिए, अप्पेगइया - कितनेक, वंदणवत्तियं - वन्दना करने के लिए, कोऊहलवत्तियं - कुतूहल के लिए, अत्थविणिच्छेयहेडं - अर्थ का निश्चय करने के लिए, अस्सुयाइं सुणिस्सामो - पहले नहीं सुने हुए अर्थों को सुनने के लिए, सुयाई णिस्संकियाई करिस्सामो- सुने हुए तत्त्वों में उत्पन्न संदेह को दूर करने के लिए, अट्ठाई - अर्थ, हेऊइं - हेतु, वागरणाई - प्रश्न, पुच्छिस्सामो - पूछने के लिए, अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो - गृहस्थावास का त्याग कर साधु बनने के लिए, पंचाणुव्वइयं - पांच अणुव्रत, सत्तसिक्खावइयं ... सात शिक्षा व्रत, पडिवज्जिस्सामो - अंगीकार करने के लिए, जिणभत्तिरागेण - जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति में राग होने से, जीयमेयं तिकट्ट - जीताचार का पालन करने के लिए, कप्पिय-हारद्धहार-तिसरय-पालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकय-सोहाभरणालटकते हुए हार, अर्द्ध हार, तिलडा हार, लटकते हुए गुच्छों वाला कंदोरा आदि सुंदर आभूषण पहन कर, पक्रवत्थपरिहिया - श्रेष्ठ वस्त्र पहन कर, चंदणोलित्तगायसरीरा - शरीर पर चंदन का लेप करके, हयगया - घोड़े पर सवार होकर, पायविहार चारेणं - पैदल चलते हुए, महया-उक्किट्ठसीहणायबोल कलकलरवेणं पक्खुब्भिय महासमुद्दरवभूयं विव करेमाणा - जैसे क्षोभित हुआ समुद्र गम्भीर शब्द करता है उसी प्रकार तुमुल यानी गंभीर हर्ष ध्वनि सिंहनाद अव्यक्त शब्द' और कलकल शब्द करते हुए, पुरिसवगुरा परिक्खित्ता - पुरुषों के समूह के समूह। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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