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________________ २७० विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रमाण वाले तथा मांसल थे इसीलिये सुंदर और मनोहर थे। उनकी रोमराजि यानी केशों की पंक्ति सीधी, विषमता रहित; घनी, पतली, काली, स्निग्ध, दर्शनीय, लावण्य बाली और रमणीय थी। उनकी कुक्षि मछली और पक्षी की तरह सुंदर और पूरी भरी हुई थी। पेट मछली की तरह. था। उनकी पांचों इन्द्रियाँ पवित्र थीं। नाभि कमल की तरह विकसित थी। उनकी नाभि गंगा के भंवर के समान आवर्त्तवाली तथा सूर्य से विकसित होने वाली कमल के समान विस्तीर्ण और गंभीर थी। उनका मध्य भाग त्रिकाष्टिका, मुशल, दर्पण पकड़ने की लकड़ी, तथा शुद्ध किये हुए सोने की तलवार की मूठ के समान और उत्तम वज्र के मध्य भाग के समान था अर्थात् जिस तरह तिपाई के ऊपर का भाग, मूसल के बीच का भाग, दर्पण पकड़ने का काठ और तलवार की मूठ का मध्य भाग पतला होता है उसी तरह भगवान् का मध्य भाग भी पतला था और वज्र की तरह जरा सा टेढा था। उनकी कमर उत्तम घोड़े और बब्बर शेर की कमल सरीखी गोल थी। उनका गुह्य भाग घोड़े के गुह्य देश की तरह गुप्त था। आकीर्ण जाति के उत्तम घोड़े की तरह उनका गुह्य शरीर मल मूत्र से लिप्त नहीं होता था। उनकी चाल उत्तम हाथी की तरह पराक्रम युक्त और सुंदर थी। उनकी जांघे हाथी की सूंड की तरह गोल और पुष्ट थीं। उनके घुटने मांस से भरे हुए होने के कारण ऐसे मिले हुए थे जैसे अनाज भरने की कोठी और उसका ढक्कन आपस में मिला रहता है। जैसे हरिणी की पिंडली और कुरुविंद नाम का तिनका क्रमशः पतला होता जाता है उसी तरह उनकी पिंडली नीचे नीचे क्रम से पतली होती गई थी। उनकी गुल्फ यानी पैर की टकनियां सुन्दर आकार वाली और उत्तम थी तथा मांस से भरी हुई होने के कारण ऊपर उठी हुई नहीं दिखती थीं। उनके पैर सुन्दर और कछुए के समान उन्नत थे। उनकी अंगुलियाँ यथा-योग्य छोटी बड़ी और एक दूसरी से मिली हुई थीं। पैर के नख तांबे के समान कुछ-कुछ लाल, पतले, उन्नत और चिकने थे। उनके पैरों के तले लाल कमल के पते के समान लाल कोमल और सुंदर थे। उनका शरीर उत्तम पुरुषों के १००८ शुभ लक्षणों से युक्त था। उनके पैर, पर्वत, नगर, मगर, सागर, रथ का चक्र और इनके अतिरिक्त अन्य और भी श्रेष्ठ तथा मांगलिक चिह्नों से अंकित थे। वे विशिष्ट रूप वाले थे। धूएं रहित अग्नि, बिजली और दोपहर के सूर्य के समान उनके शरीर का तेज था। • विवेचन - उपरोक्त पाठ में भगवान् के शरीर के समस्त अंगों का वर्णन किया गया है। उनके शरीर के समस्त अन पूर्ण और सुंदर थे। उनका कोई भी अन ऐसा न था जो अशोभनिक मालूम हो, यहाँ तक कि उन के शरीर में नख, केश आदि भी परिमाण से अधिक न बढ़ते थे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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