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________________ २६८ विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुंदर अंगुलियां, आयंबतंबतलिणसुइरुइलणिद्धणक्खे - तांबे की तरह कुछ कुछ लाल, पतले, पवित्र, चमकीले और चिकने नख, चंदपाणिलेहे - हाथ की रेखाएं चन्द्रमा के समान आकारवाली, दिसासोवत्थियपाणिलेहे - दाहिनी तरफ घूमे हुए स्वस्तिक के आकार वाली, कणगसिलातलुज्जल पसत्थ समतल उवचिय विच्छिण्णपिहुलवच्छे - सोने की शिला के समान उज्ज्वल, शुभ, समतल, पुष्ट, विस्तीर्ण और अत्यंत विशाल वक्षस्थल, सिरिवच्छंकियवच्छे - वक्ष स्थल श्रीवत्स के चिह्न से शोभित, अकरंडुय-कणग-रुयय-णिम्मल-सुजायणिरुवहय-देहधारी - भरा हुआ शरीर होने से पीठ की हड्डी दिखाई नहीं देती थी, सोने की सी कांति वाले, सुंदर और रोग रहित शरीरधारी, अट्ठसहस्सपडिपुण्णवरपुरिसलक्खणधरे - उत्तम पुरुष के श्रेष्ठ १००८ लक्षणों से युक्त शरीर वाले, उज्जुयसमसहिय-जच्च-तणुकसिणणिद्ध आइज्ज-लउह-रमणिज्जरोमराई - सीधी, विषमता रहित, घनी, पतली, काली, स्निग्ध, दर्शनीय, लावण्यवाली और रमणीय रोमराजि यानी के शों की पंक्ति, झसविहगसुजायपीणकुच्छी - मछली और पक्षी की तरह सुंदर और पूरी भरी हुई कुक्षि, झसोयरे - मछली की तरह पेट, पउमवियडणाभी - कमल की तरह विकसित नाभि, गंगावत्तगपयाहिणावत्ततरंग-भंगुर-रवि-किरण-तरुण-बोहिय-कोसायंत-पउमगंभीरवियडणाभी- गंगा के भंवर के समान आवर्त वाली, सूर्य से विकसित होने वाले कमल के समान विस्तीर्ण और गंभीर नाभि, साहयसोणंदमुसलदप्पणणिकरिय वरकणगच्छरुसरिसवरवइर वलियमज्झे - त्रिकाष्टिका, मुशल, दर्पण पकड़ने की लकड़ी, शुद्ध किये हुए सोने की तलवार की मूठ के समान और उत्तमवज्र के मध्यभाग के समान उनका मध्य भाग था, पमुइयवरतुरगसीहवरवट्टियकडी - उनकी कमर उत्तम घोड़े और बब्बर शेर की कमर की तरह गोल, वरतुरगसुजायसुगुज्झदेसे - घोड़े के गुह्य देश की तरह गुप्त गुह्य भाग, आइण्णहउव्वणिरुवलेवे - आकीर्ण जाति के उत्तम घोड़े की तरह निर्लिप्त गुह्य शरीर, वरवारुणतुल्लविक्कम विलसियगई - उत्तम हाथी की तरह पराक्रम युक्त और सुंदर चाल, गयससणसुजायसण्णिभोरु - हाथी की सूंड की तरह गोल और पुष्ट जांघे, समुग्गणिमग्गगूढजाणू - जैसे अनाज भरने की कोठी और उसका ढक्कन आपस में मिला रहता है उसी प्रकार घुटने मांसल होने के कारण मिले हुए थे, एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुव्वजंघेजैसे हरिणी की पिंडली और कुरुविंद नाम का तिनका क्रमशः पतला होता जाता है वैसी ही उनकी पिण्डली नीचे नीचे क्रम से पतली होती गई थी, संठिय सुसिलिट्ठ विसिड गूढगुप्फे - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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