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________________ २४६ विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ......................................................... चेष्टा से अभिप्राय को जानने वाली, चिंतित-मन में सोचे हुए को इशारे से जानने वाले और वचन से न कहने पर भी आवश्यकता को समझने वाली, सदेसणेवत्थगहियवेसाहिं - अपने अपने देश का वेश पहनने वाली, चेडियाचक्कवाल वरिसहर कंचुइज्ज महयरगवंदपरिक्खित्तेदासियों के समूह और रणवास में रहने वाले कंचुकी तथा अन्तःपुर की रक्षा करने वालों से घिरा हुआ, साहरिज्जमाणे- ग्रहण किया जाता हुआ, परिभुज्जमाणे - लिया जाता हुआ, परिगिज्जमाणे - गीत सुनाया जाता हुआ, चालिज्जमाणे - हिलाया जाता हुआ, उवलालिज्जमाणे - झुलाया जाता हुआ, मणिकोट्टिमतलंसि - जिसके तले में मणियां कूटी गई हैं, परिमिज्जमाणे - आनंद करता हुआ, णिव्वायणिव्वाघायंसि - कष्ट पहुँचाने वाली गर्म हवा के झोंकों रहित और बाधा रहित, गिरिकंदरमल्लीणेव - पर्वत की गुफा में रहने वाले, चंपगपायवे - चम्पक वृक्ष के समान, वड्डइ - बढने लगा। ____भावार्थ - तदनन्तर उस सुबाहुकुमार को पांच धायों ने ग्रहण किया जैसे कि - १. दूध पिलाने वाली धाय २. श्रृंगार. कराने वाली धाय ३. स्नान कराने वाली धाय ४. क्रीड़ा कराने वाली धाय और ५. गोद में लेकर क्रीड़ा कराने वाली धाय। इसी प्रकार अन्य और भी बहुतसी दासियाँ उसकी सेवा में रखी गई। जैसे कि - टेढे शरीर वाली, चिलात देश में उत्पन्न हुई, बावना शरीर वाली, बड़े पेट वाली, बर्बर देश में उत्पन्न हुई, बकुश देश की, योनिक देश की, पल्हन देश की, इसिनीक देश की, धोरुकिन देश की, लासक देश की, पक्कन देश की, बहल देश की, मरुंड देश की, शबर देश की, पारस देश की इत्यादि बहुत से देशों की, बहुत से देश विदेशों के परिमण्डन को जानने वाली, इंगित यानी चेष्टा से अभिप्राय को जानने वाली, मन में सोचे हुए को इशारे से जानने वाली और वचन से न कहने पर भी आवश्यकता को समझने वाली अपने-अपने देश का वेश पहनने वाली बहुत ही चतुर विनीत दासियों के समूह और रणवास में रहने वाली कंचुकी तथा अन्तःपुर की रक्षा करने वालों से घिरा हुआ एक के हाथों से दूसरों के हाथों में ग्रहण किया जाता हुआ, एक की गोद से दूसरे की गोद में लिया जाता हुआ, दासियों द्वारा गीत सुनाया जाता हुआ, हिलाया जाता हुआ, झुलाया जाता हुआ, जिसके तले में मणियां कूटी गई हैं ऐसे रमणीय महल में अनेक प्रकार से आनंद करता हुआ वह सुबाहुकुमार कष्ट पहुंचाने वाली गर्म हवा के झोंकों रहित और बाधा रहित पर्वत की गुफा में रहने वाले चम्पक वृक्ष के समान सुख पूर्वक बढ़ने लगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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