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________________ १६२ . विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध .......................................... धरणीयलंसि सव्वंगेहिं संणिवडिए। तए णं से पूसणंदी राया मुहत्तंतरेण आसत्थे वीसत्थे समाणे बहूहिं राईसर जाव सत्थवाहेहिं मित्त जाव परियणेण य सद्धिं रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे सिरीए देवीए महया इवीए णीहरणं करेइ, करेत्ता . आसुरुत्ते देवदत्तं देवि पुरिसेहिं गिण्हावेइ एएणं विहाणेणं वझं आणवेइ। तं एवं खलु गोयमा! देवदत्ता देवी पुरापुराणाणं....विहरइ॥१६०॥ ____ कठिन शब्दार्थ - दासचेडीणं - दास और चेटियों-दासियों के, माइसोएणं - मातृशोक से, अप्फुण्णे समाणे- आक्रान्त हुआ, परसुणियत्ते - परशु-कुल्हाडे से काटे हुए, चंपगवरपायवेचम्पकवरपादप-श्रेष्ठ चंपक वृक्ष की, विव - तरह, धसत्ति - धस (गिरने की ध्वनि क अनुकरण) ऐसे शब्द से अर्थात् धड़ाम से, धरणीयलंसि - पृथ्वी तल पर, सव्वंगेहिं - सन अंगों से, सण्णिवडिए- गिर पड़ा, मुहत्तंतरेण - एक मुहूर्त के बाद, विहाणेणं - विधान से. . वझं - वध्या-हंतव्या। भावार्थ - तदनन्तर वह पुष्यनंदी राजा उन दासदासियों से इस वृत्तांत को सुन कर, उस पर विचार कर महान् मातृशोक से आक्रान्त हुआ। परशु-कुल्हाडे से काटे गये चंपक वृक्ष के . समान धड़ाम से पृथ्वीतल पर सर्व अंगों से गिर पड़ा। तदनन्तर मुहूर्त के बाद वह पुष्यनंदी राजा आश्वस्त हो अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह के साथ और मित्रों आदि यावत् परिजनों के साथ रुदन, आक्रन्दन और विलाप करता हुआ महान् ऋद्धि तथा सत्कार समुदाय से श्रीदेवी की अरथी निकालता है। तत्पश्चात् क्रोधातिरेक से लाल पीला हो वह देवदत्ता देवी को राजपुरुषों से पकड़वाता है और पकड़वा कर इस विधान से यह वध्या-मारी जाएं ऐसी आज्ञा देता है। इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम! देवदत्ता देवी पूर्वकृत पाप कर्मों का फल भोगती हुई विचरण कर रही है। . विवेचन - दासदासियों के द्वारा राजमाता श्रीदेवी की मृत्यु का वृत्तांत सुनने तथा अपनी प्रियतमा देवदत्ता द्वारा उसका क्रूरता पूर्ण वध किये जाने के समाचार से रोहीतक नरेश पुष्यनंदी के हृदय पर गहरा आघात हुआ, वे कुठार से कटी गई चम्पक वृक्ष की शाखा के समान धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़े। मूर्छा दूर होने पर रोजोचित ठाठ से राजमाता का निस्सरण यावत् मृतक कर्म किया। तत्पश्चात् क्रोधावेश में देवदत्ता को पकड़वा कर उसका अमुक प्रकार से वध करने की आज्ञा प्रदान की। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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