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________________ : विपाक सूत्र- प्रथम श्रुतस्कन्ध उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिरीए देवीए अवाणंसि पक्खिवइ । तए णं सा सिरी देवी महया महया सद्देणं आरसित्ता काल- धम्मुणा संजुत्ता ॥ १५८ ॥ कठिन शब्दार्थ - वक्खेवेणं - व्यक्षेप-बाधा से विरहियसयणिज्जंसि एकान्त में अपनी शय्या पर, सुहपसुत्ता - सुखपूर्वक सोई हुई, दिसालोयं - दिशा का अवलोकन, लोहदंड - लोहे के दण्डे को, तवावेइ - तपाती हैं, तत्तं तप्त-तपा हुआ, समजोइभूयं अग्नि के समान देदीप्यमान, फुल्लकिंसुयसमाणं खिले हुए संडासएणं - संडासी से, अवाणंसि - अपान- गुह्य स्थान में, आरसित्ता किंशुक - केसू के फूल के समान, आक्रन्दन कर। १६० - - भावार्थ तदनन्तर किसी समय मध्य रात्रि में कौटुम्बिक जागरणा - कुटुम्ब संबंधी चिंता. के कारण जागती हुई देवदत्ता के मन में इस प्रकार संकल्प उत्पन्न हुआ कि पुष्यनंदी राजा माता श्रीदेवी का इस प्रकार भक्त बना हुआ यावत् विचरण करता है कि मैं इस बाधा से महाराज पुष्यनंदी के साथ उदार मनुष्य संबंधी कामभोगों का उपभोग करने में समर्थ नहीं हूं। इसलिये मुझे अब यही करना योग्य है कि अग्नि प्रयोग, शस्त्रप्रयोग अथवा विष प्रयोग से श्रीदेवी को जीवन से रहित कर पुष्यनंदी राजा के साथ उदार - प्रधान मनुष्य संबंधी विषयभोगों का सेवन करती हुई विचरूं, ऐसा विचार कर वह श्रीदेवी को मारने के लिये अन्तर, छिद्र और विरह की अर्थात् उचित अवसर की प्रतीक्षा में रहने लगी । Jain Education International - तदनन्तर किसी समय श्रीदेवी स्नान किये हुए एकान्त शयनीय स्थान में सुखपूर्वक सोई हुई थी। इधर देवदत्ता देवी जहां श्रीदेवी थी वहां पर आती है और आकर माता श्रीदेवी को स्नान कराई हुई एकान्त में अपनी शय्या पर सुख से सोई देखती है देख कर दिशा का अवलोकन करती है अर्थात् चारों ओर देखती है । तदनन्तर जहां भक्तगृह - रसोई थी वहां आई आकर एक दंड को अग्नि में तपाया, जब वह तप्त अग्नि जैसा और केसू के फूल के समान लाल हो गया, उसे संडासी से पकड़ कर जहां पर श्रीदेवी थी वहां पर आई और उस तपे हुए लोहदण्ड को श्रीदेवी के गुह्य स्थान में प्रविष्ट कर दिया फलस्वरूप श्रीदेवी अति महान् शब्द से आक्रन्दन कर, चिल्ला चिल्ला कर काल कर गई । राजा को सूचना For Personal & Private Use Only तए णं तीसे सिरीए देवीए दासचेडीओ आरसियसद्दं सोच्चा णिसम्म जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता देवदत्तं देविं तओ अवक्कममाणि www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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