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. आठवां अध्ययन - कृत कर्मों का फल
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कठिन शब्दार्थ - उप्पत्तियाहि - औत्पातिकी आदि बुद्धि विशेष, वमणेहि - वमनों से, छड्डणेहि - छर्दनों से, ओवीलणेहि - अवपीडन-दबाने से, कवलग्गाहेहि - कवल ग्राहों से, सल्लुद्धरणेहि - शल्योद्धरणों से, विसल्लकरणेहि - विशल्य करणों से, णीहरित्तए - निकालने की, वेज्जपडियारणिव्विण्णे - वैद्यों के प्रतिकार-इलाज से निराश हुआ, अभिभूए - अभिभूतयुक्त हुआ। . भावार्थ - तदनन्तर बहुत से वैद्य और वैद्यपुत्र आदि उस उद्घोषणा को सुन कर शौरिकदत्त मच्छीमार के घर पर आये, आकर बहुत सी औत्पातिकी आदि बुद्धियों से परिणमन को प्राप्त करते हुए अर्थात् सम्यक्तया निदान आदि को समझते हुए उन वैद्यों ने वमन, छर्दन, अवपीडन, कवलग्राह, शल्योद्धरण और विशल्यकरण आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के कांटे को निकालने तथा पूय, रुधिर आदि को बंद करने का उन्होंने अथक प्रयत्न किया किंतु वे समर्थ नहीं हो सके। तब वे श्रान्त, तान्त और परितान्त हुए अर्थात् हतोत्साहित होकर जिस दिशा से. आये उसी दिशा को लौट गये। .. तदनन्तर वह शौरिक मत्स्यबंध वैद्यों के प्रतिकार-इलाज से निराश हुआ उस महती वेदना को भोगता हुआ सूख कर यावत् दुःखमय जीवन व्यतीत करने लगा।
इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम! शौरिक पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोगता हुआ समय व्यतीत कर रहा है।
विवेचन - शौरिकदत्त मत्स्यादि जीवों के मांस का विक्रेता भी था और स्वयं भोक्ता भी था अतः उसने तीव्रतर क्रूरकर्मों का बंध किया। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो जन्मान्तर में फल देते हैं तो कुछ कर्म इसी जन्म में फल दे डालते हैं। शौरिकदत्त के पूर्वोक्त जीवन वृत्तांत से फलित होता है कि वह अपने कृत कर्मों का फल इस जन्म में भी भुगत रहा है।
एक दिन मांस भक्षण करते हुए शौरिकदत्त के गले में मच्छी का कोई विषैला कांटा फंस गया। कांटे के गले में लगते ही उसे असह्य वेदना हुई, वह तड़फ उठा। अनेक उपचार करने पर भी जब कांटा नहीं निकल सका तो उसने नगर में घोषणा करवाई कि जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र चिकित्सक या चिकित्सक पुत्र आदि शौरिकदत्त के गले में लगे हुए मच्छी के कांटे को बाहर निकाल कर उसे अच्छा कर देगा तो वह उसको बहुत-सा धन देकर प्रसन्न करेगा। घोषणा को सुन कर अनेक मेधावी वैद्य, चिकित्सक आदि आये और उन्होंने काफी प्रयत्न किये किंतु वे अपने उपचारों में सफल नहीं हो सके। अर्थात् "हम इस कांटे को निकालने में सर्वथा असमर्थ
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