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________________ शौरिकदत्त की महावेदना लल्लिरि-मत्स्यों को पकडने के साधन विशेषों से, जालेहि- सामान्य जालों से, गलेहि वडिशों-मत्स्यों को पकडने की कुंडियों से, कूडपासेहि - कूट पाशों से - मत्स्यों को पकड़ने के पाश रूप बंधन विशेषों से, वक्कबंधेहि - वल्क - त्वचा आदि के बंधनों से, सुत्तबंधेहि - सूत्र के बंधनों से, वालबंधेहि - बालों- केशों के बंधनों से, कूलं - किनारे पर, गाहेति - लाते हैं, मत्स्यों के ढेर, आयवंसि मच्छखलए धूप में। भावार्थ तदनन्तर उस शौरिक मत्स्य बंध मच्छीमार के रुपया पैसा और भोजनादि रूप वेतन लेकर काम करने वाले अनेक वेतनभोगी पुरुष रखे हुए थे जो कि छोटी नौकाओं के द्वारा यमुना नदी में घूमते और बहुत से हृदगलन, हृदमलन, हृदमर्दन, हृदमंथन, ह्रदवहन तथा ह्रदप्रवहन से एवं प्रपंचल, प्रपंपुल, जृम्भा, त्रिसरा, भिसरा, घिसरा, द्विसरा, हिल्लरि झिल्लरि, लल्लिरि, जाल, गल, कूटपाश, वल्कबंध, सूत्रबंध और वालबन्ध, इन साधनों के द्वारा अनेक जाति के सूक्ष्म अथवा कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक नामक मत्स्यों को पकड़ते हैं और पकड़ कर उनसे नौकाएं भरते हैं, भर कर नदी के किनारे पर उनको लाते हैं, लाकर बाहर एक • स्थल पर ढेर लगा देते हैं तत्पश्चात् उनको वहाँ धूप में सूखने के लिए रख देते हैं । और उसके बहुत रुपया, पैसा और धान्यादि ले कर काम करने वाले वेतन भोगी पुरुष धूप से सूखे हुए उन मत्स्यों के मांसों को शूलाप्रोत कर पकाते, तलते, भूनते तथा उन्हें राज मार्ग पर बिक्री के लिए रख कर उनके द्वारा आजीविका करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। इसके अलावा शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किये हुए, भूने हुए और तले हुए मत्स्य मांसों के साथ विविध प्रकार की सुराओं का सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने शौरिकदत्त के हिंसक जीवन एवं हिंसक वृत्ति का परिचय दिया है। - Jain Education International - आठवां अध्ययन - - - १६७ शौरिकदत्त की महावेदना तणं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अण्णया कयाइ ते मच्छसोल्ले तलिए य भज्जिए य आहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे यावि होत्था । तए णं से सोरियदत्तमच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सहावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी - गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया! सोरियपुरे णयरे सिंघाडग For Personal & Private Use Only - www.jalnelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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