SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध - ......................................................... वेतन रूप से भृति-रुपया पैसा, भक्त-धान्य और घृतादि दिया जाता हो ऐसे नौकर पुरुष, कल्लाकल्लिं - प्रतिदिन, सहमच्छा - श्लक्ष्ण मत्स्यों-कोमल चर्म वाले मत्स्यों अथवा सूक्ष्म मत्स्यों, पडागाइपडागे - पताकातिपताको-मत्स्य विशेषों, उवणेति - अर्पण करते हैं। भावार्थ - उस श्रीयक रसोइए के बहुत से मात्स्यिक, वागुरिक और शाकुनिक नौकर पुरुष थे जिन्हें वेतन रूप से रुपया, पैसा और धान्यादि दिया जाता था। वे नौकर पुरुष प्रतिदिन श्लक्ष्ण मत्स्यों यावत् पताकातिपताक मत्स्यों तथा अजों यावत् महिषों, तित्तिरों यावत् मयूरों आदि प्राणियों को मार कर श्रीयक रसोइये को लाकर देते थे। उसके वहाँ पिजरों में अनेक तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी बंद किये हुए रहते थे। श्रीयक रसोइए के अन्य अनेक रुपया, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष जीते हुए तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षियों को पक्ष-परों से रहित करके श्रीयक रसोइये को लाकर देते थे। तए णं से सिरीए महाणसिए बहूणं जलयर-थलयर-खहयराणं मंसाइं. कप्पणिकप्पियाई करेइ, तंजहा-सण्हखंडियाणि य वदृखंडियाणि य दीहखंडियाणि य रहस्सखंडियाणि य हिमपक्काणि य जम्मपक्काणि घम्मपक्काणि वेगपक्काणि मारुयपक्काणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिट्ठाणि य आमलरसियाणि य मुद्दियारसियाणि य कविट्ठरसियाणि य दालिमरसियाणि य मच्छरसियाणि य तलियाणि य भज्जियाणि य सोल्लियाणि य उवक्खडावेइ उवक्खडावेत्ता अण्णे य बहवे मच्छरसए य एणेज्जरसए य तित्तिररसए य जाव मयूररसे य अण्णं च विउलं हरियसागं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्तस्स रण्णो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेइ अप्पणावि य णं से सिरीए महाणसिए तेसिं च बहहिं जलयर-थलयर-खहयरमंसेहिं च रसिएहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च ६ आसाएमाणे० विहरइ॥१३७॥ ___कठिन शब्दार्थ - कप्पणिकप्पियाई करेंति - कल्पनी-छुरी से कर्तित करता है अर्थात् उन्हें काट कर खण्ड-खण्ड बनाता है, सण्हखंडियाणि - सूक्ष्म खण्ड, रहस्सखंडियाणि - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy