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________________ १५२ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ........................................................... है, निकल कर जहां पुष्करिणी हैं वहां आती है आकर पुष्करिणी में प्रवेश करती है प्रवेश करके स्नान की हुई यावत् मांगलिक कार्य की हुई उस विपुल अशनादिक का अनेक मित्र ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के साथ आस्वादन आदि करती है और अपने दोहद को पूर्ण करती है। इस प्रकार विचार करके प्रातःकाल यावत् देदीप्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर जहां सागरदत्त सार्थवाह था वहां पर आती है और आकर सागरदत्त को इस प्रकार कहने लगी-'वे माताएं धन्य हैं यावत् दोहद की पूर्ति करती है इसलिए मैं चाहती हूं यावत् अपने दोहद की पूर्ति करना।' दोहद पूर्ति तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे गंगदत्ताए भारियाए एयमढे अणुजाणइ। तए णं सा गंगदत्ता सागरदत्तेणं. सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाया समाणी विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ उवक्खडावेत्ता तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६ सुबहुं पुप्फ० परिगिण्हावेइ परिगिण्हावेत्ता बहूहिं जाव ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे जाव धूवं डहेइ० जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ। तए णं ताओ मित्त जाव महिलाओ गंगदत्तं सत्थवाहिं सव्वालंकारविभूसियं करेंति। तए णं सा गंगदत्ता भारिया ताहि मित्तणाईहिं अण्णाहिं बहूहिँ णगरमहिलाहिं सद्धिं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६......दोहलं विणेइ विणेत्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तए णं सा गंगदत्ता सत्थवाही पसत्थ दोहला तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहइ॥१३०॥ भावार्थ - तब सागरदत्त सार्थवाह इस बात के लिये अर्थात् दोहद की पूर्ति के लिए गंगादत्ता को आज्ञा दे देता है। सागरदत्त सेठ से आज्ञा प्राप्त कर गंगादत्ता भार्या विपुल मात्रा में अशनादिक चतुर्विध आहार की तैयारी करवाती है। तैयार किये हुए आहार आदि, सुरा आदि छह प्रकार के मद्यों तथा बहुत से पुष्प आदि सामग्री लेकर मित्र ज्ञातिजन आदि की महिलाओं तथा अन्य बहुत-सी महिलाओं को साथ लेकर यावत् स्नान एवं अशुभ स्वप्नादि के फल को नाश करने के लिये मस्तक पर तिलक एवं अन्य मांगलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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