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________________ सातवां अध्ययन - गंगादत्ता की व्यथा । १४७ ........................................................... भावार्थ - वह गंगादत्ता भार्या जात निद्रुता (जिसके बालक जीवित नहीं रहते हों) थी। उसके बालक उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। किसी अन्य समय मध्य रात्रि में कुटुम्ब संबंधी जागरिका जागती हुई उस गंगादत्ता सार्थवाही के मन में इस प्रकार संकल्प. उत्पन्न हुआ कि-मैं सागरदत्त सार्थवाह के साथ उदार-प्रधान मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगती हुई विचरण कर रही हूं किंतु मैंने आज दिन तक एक भी बालक अथवा बालिका को जन्म नहीं दिया अर्थात् मैंने ऐसे बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया जो कि जीवित रह सका हो। तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ सपुण्णाओ कयत्थाओ कयपु० कयलक्खणाओ सुलद्धे णं तासिं अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफले जासिं मण्णे णियगकुच्छिसंभूयाई थणदुद्धलुद्धयाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणपजंपियाई । थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणयाई मुद्धयाइं पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊण उच्छंगणिवेसियाई देंति समुल्लावए सुमहुरे पुणो-पुणो मंजुलप्पणिए॥१२५॥ - कठिन शब्दार्थ - कयत्थाओ - कृतार्थ हैं, कयलक्खणाओ - कृतलक्षणा हैं, जम्मजीवियफले- जन्म और जीवन का फल, णियगकुच्छिसंभूयाई - अपनी कुक्षि-उदर से उत्पन्न हुई संतानें हैं, थणदुद्धलुद्धयाई - स्तनगत दुध में लुब्ध, महुरसमुल्लावगाई - जिनके संभाषण अत्यंत मधुर हैं, मम्मणजंपियाई - जिनके वचन मन्मन अर्थात् अव्यक्त अर्थात् स्खलित है, थणमूल (थणमूला) - स्तन के मूल भाग से, कक्खदेसभागं - कक्ष (कांख) प्रदेश तक, अभिसरमाणयाई - सरक रही हैं, मुद्धयाई - मुग्ध-नितांत सरल, कोमलकमलोवमेहि - कमल के समान कोमल-सुकुमार, उच्छंगणिवेसियाई- उत्संग-गोदी में स्थापित की हुई, सुमहुरे- सुमधुर, मंजुलप्पभणिए - मंजुलप्रभणित-जिनमें बोलने का प्रारंभ मंजुल-कोमल हैं, समुल्लावए- समुल्लापों-वचनों को। भावार्थ - वे माताएं धन्य हैं, कृतार्थ और कृतपुण्य हैं, उन्होंने ही मनुष्य संबंधी जन्म और जीवन को सफल किया है जिनकी स्तनगत दुग्ध में लुब्ध, मधुर भाषण से युक्त, अव्यक्त अर्थात् स्खलित वचन वाली, स्तनमूल से कक्षप्रदेश तक अभिसरणशील नितान्त सरल, कमल के समान कोमल-सुकुमार हाथों से पकड़ कर अंक-गोदी में स्थापित की जाने वाली और पुनः । पुनः सुमधुर कोमल प्रारंभ वाले वचनों को कहने वाली अपने पेट से उत्पन्न हुई संतानें हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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