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________________ 12] •••........................................................ • "कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि" अर्थात् किये हुए कर्मों को भोगे बिना मोक्ष नहीं, इस आगम वाक्य के अनुसार जीव को अपने कृत कर्मों को सुख या दुःख के रूप में भोगना ही पड़ेगा। जिन जीवों ने अपने पूर्व भवों में अन्याय, अत्याचार, क्रूरता, निर्दयता; चौर्यवृत्ति, कामवासना आदि कारणों से अशुभ कर्मों का बंध किया, वे ही अशुभ कर्म उनके उदय में आने पर उन्हें घोर दुःख परितापना आदि का वर्तमान में अनुभव करा रहे हैं, जिनका विस्तार से वर्णन विपाक सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में दस जीवों के कथानक को देकर समझाया गया है। इसके विपरीत जिन दस जीवों ने पूर्वभव में सुपात्रदान, जीवों की दया, शुभ परिणिति आदि के द्वारा शुभ कर्मों का बंध किया उनमें से छह जीव तो उसी भव में मोक्ष पधार गये। शेष चार जीव नाना प्रकार से सुखों का अनुभव एवं सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करते हुए सुखे-सुखे मोक्ष के अक्षय सुखों को प्राप्त करेंगे। इन दस जीवों वर्णन विपाक सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में किया गया है। संघ द्वारा पूर्व में मात्र सुखविपाक सूत्र का प्रकाशन हुआ, जो अति संक्षिप्त था। संघ की आगम प्रकाशन योजना के अर्न्तगत अब विपाक सूत्र के दोनों सूत्र स्कन्धों का मूल पाठ कठिन शब्दार्थ, भावार्थ, विवेचन युक्त यह प्रकाशन किया जा रहा है। इसके प्रकाशन में पण्डित रत्न श्री घेवरचन्दजी बांठिया “वीरपुत्र" द्वारा सुखविपाक सूत्र की अन्वयार्थ युक्त कापियां जो आपने गृहस्थ अवस्था में बीकानेर में रह कर तैयार की थी वे बड़ी सहायक रही, इसके अलावा पूज्य श्री आत्मारामजी म. सा. के द्वारा अनुवादित “विपाक सूत्र" एवं अन्य प्राचीन टीकाओं के आधार से इसका अनुवाद श्रीमान् पारसमलजी सा. चण्डालिया ने किया, जिसका बाद में मेरे द्वारा सूक्ष्मता से अवलोकन किया गया। इस प्रकार विपाक सूत्र का विवेचन युक्त संघ का यह प्रथम प्रकाशन है। इस प्रकाशन में यद्यपि मूल पाठ, विवेचन आदि में पूर्ण सतर्कता बरती गई है। फिर भी हमारी अल्पज्ञता के कारण गलती रहना स्वाभाविक है। अतएव विद्ववर्य समाज से निवेदन है कि उनके ध्यान में कोई त्रुटि दृष्टिगोचर हों तो हमें सूचित करने की महती कृपा करावें। ताकि अगली आवृत्ति में संशोधन किया जा सके। हम गलतियाँ बताने वाले महानुभाव के हृदय से आभारी रहेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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