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________________ ८८ थम श्रुतस्कन्ध ......................................................... अभग्गसेणे चोरसेणावई अम्मे बहूहिं गामघाएहि य जाव णिद्धणे करेमाणे विहरइ, तं इच्छामि णं सामी! तुझं बाहुच्छायापरिग्गहिया णिब्भया णिरुवसग्गा सुहेणं परिवसित्तए त्तिकट्ठ पायवडिया पंजलिउडा महाबलं रायं एयमट्ट विण्णेवेंति॥७७॥ कठिन शब्दार्थ - महग्धं - महाघ-बहुमूल्य वाला, महरिहं - महार्ह-महत् पुरुषों के योग्य, पाहुडं - प्राभृत-उपायन-भेंट, बाहुच्छाया परिग्गहिया - भुजाओं की छाया से परिग्रहीत हुए-आपसे संरक्षित होते हुए, णिब्भया - निर्भय, णिरुवसग्गा-उपसर्ग रहित होकर, परिवसित्तएबसें, पायवडिया - पैरों में पड़े हुए। भावार्थ - तदनन्तर वे जानपदपुरुष - उस देश के रहने वाले लोग इस बात को परस्परआपस में स्वीकार करते हैं स्वीकार कर महार्थ (महाप्रयोजन का सूचन करने वाला), महार्य (बहुमूल्य वाला) महार्ह (महत् पुरुषों के योग्य) तथा राजा के योग्य प्राभृत-भेंट लेकर जहाँ पर .. पुरिमताल नगर था और जहाँ पर महाबल राजा था वहाँ पर आये और दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि रख कर महाबलराजा को वह प्राभृत-भेंट अर्पण की तथा अर्पण करके महाबल नरेश से इस प्रकार बोले - 'हे स्वामिन्! शालाटवी नामक चोरपल्ली के अभग्नसेन नामक चोर सेनापति हमें अनेक गांवों के विनाश से यावत् निर्धन करता हुआ विचरण कर रहा है इसलिए हे स्वामिन्! हम चाहते हैं कि आप की भुजाओं की छाया से परिगृहीत हुए अर्थात् आप से संरक्षित हुए निर्भय और उद्वेग रहित होकर सुख पूर्वक निवास करें। इस प्रकार कह कर वे लोग पैरों में पड़े हुए तथा दोनों हाथ जोड़े हुए महाबल राजा को यह बात निवेदन करते हैं। विवेचन - अभग्नसेन के दुष्कृत्यों से पीड़ित एवं संतप्त जनपद में रहने वाले लोगों ने महाबल नरेश को अपना दुःख सुनाया और निवेदन किया कि महाराज! आप हमारे स्वामी है आप तक ही हमारी पुकार है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि आपकी सबल और शीतल छत्रछाया के तले निर्भय होकर सुख और शांति पूर्वक जीवन व्यतीत करें। राजा का आदेश तए णं से महाबले राया तेसिं जाणवयाणं पुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं णिडाले साहट्ट दंडं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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