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________________ ज्ञान के भेद ***************************************************** . ४३ **** * ***** मतिज्ञान, श्रुतपूर्वक नहीं होता। इस कारण इसे प्रथम स्थान दिया गया है। किन्तु श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। इस कारण इसे दूसरा स्थान दिया गया है। १. मति-श्रुत ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति भी ६६ सागर से कुछ अधिक की है और अवधिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति भी ६६ सागर से कुछ अधिक है। २. मति-श्रुत ज्ञान भी मिथ्यात्व योग से मति-अज्ञान श्रुत-अज्ञान रूप हो जाता है और अवधि-ज्ञान भी मिथ्यात्व उदय से विभंग-ज्ञान हो जाता है, ३. मति-श्रुत ज्ञान भी चारों गति के जीवों को हो सकता है और अवधिज्ञान भी चारों गति के जीवों को हो सकता है, ४. सम्यक्त्व प्राप्ति से जैसे मिथ्यात्वी देव को, मति श्रुत ज्ञान का लाभ होता है, वैसे ही अवधिज्ञान का भी लाभ होता है, इस प्रकार (१) स्थिति, (२) विपर्यय, (३) स्वामी और (४) लाभ आदि की समानता के कारण मति-श्रुत ज्ञान के साथ अवधिज्ञान को तीसरा स्थान प्राप्त हुआ है। मति-श्रुत ज्ञान, सभी सम्यग्दृष्टियों को होता है, अवधिज्ञान कुछ सम्यग्दृष्टियों को ही होता है। मति-श्रुत ज्ञान परोक्ष है, अवधि ज्ञान प्रत्यक्ष है। इत्यादि कारणों से मति-श्रुत ज्ञान के पश्चात् अवधिज्ञान को स्थान मिला है। . जैसे अवधिज्ञान रूपी द्रव्य को जानता है, वैसे ही मन:पर्याय ज्ञान भी रूपी द्रव्य को जानता है, इस प्रकार विषय समानता आदि कारणों से अवधिज्ञान के साथ मन:पर्यव ज्ञान रक्खा है। १. जैसे मति-श्रुत, छद्मस्थों को होते हैं। वैसे ही अवधि, मन:पर्यव भी छद्मस्थों को होते हैं। २. जैसे मति-श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक हैं, वैसे अवधि, मन:पर्यव भी क्षायोपशमिक है। ३. जैसे मतिश्रुत प्रतिपाति हो सकते हैं, वैसे अवधि और मनःपर्यव भी प्रतिपाति हो सकते हैं। इस प्रकार (१) स्वामी (२) क्षयोपशम (३) प्रतिपात आदि की समानता के कारण इन चारों को साथ रक्खा गया है। - मति, श्रुत, अवधिज्ञान चारों गति के जीवों को और असाधुओं को भी हो सकते हैं, परन्तु मन:पर्यवज्ञान तो मनुष्य गति के कुछ ऋद्धि सम्पन्न अप्रमत्त संयत जीवों को ही हो सकता है। मति, श्रुत और अवधि-ये तीनों तो अज्ञान रूप भी हो सकते हैं, परन्तु मनःपर्याय ज्ञान, ज्ञानरूप ही होता है। इत्यादि कारणों से मति श्रुत और अवधि के बाद मनःपर्याय ज्ञान को स्थान दिया गया है। अवधिज्ञान गण प्रत्यय और भवप्रत्यय भी होता है, पर मनःपर्यायज्ञान गुणप्रत्यय ही होता है, इत्यादि कारणों से अवधिज्ञान के बाद मन:पर्याय ज्ञान रक्खा गया है। - जैसे मनःपर्याय ज्ञान मनुष्य गति के कुछ विशिष्ट अप्रमत्त जीवों को ही हो सकता है, वैसे ही केवलज्ञान भी मनुष्य गति के अप्रमत्त जीवों को ही हो सकता है। जैसे मनःपर्याय ज्ञान का विपर्यय नहीं होता, वैसे केवलज्ञान का भी विपर्यय नहीं होता। इत्यादि कारणों से मन:पर्यायज्ञान के साथ केवलज्ञान रक्खा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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