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________________ नन्दी सूत्र इनके पश्चात् श्री (२६) 'दुष्य गणि' हैं । ये शास्त्रों के सामान्य अर्थ (जो भाषा द्वारा प्रकट किये जाते हैं) तथा महार्थ (जो विभाषा वार्तिक आदि द्वारा प्रकट किये जाते हैं) की खान के समान हैं। मूलगुण युक्त सुसाधुओं को अपूर्व सूत्रार्थ का व्याख्यान देने में और उनके पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर कहने में समाधि का अनुभव करने वाले हैं। प्रकृति से ही मधुरवाणी वाले हैं (शिष्य में प्रमाद आदि देखकर कोपवश हो निष्ठुरवचन नहीं कहते थे)। ऐसे दुष्यगणि को प्रयत्नपूर्वक प्रणाम करता हूँ । १८ आचार्यश्री पुन: इनकी कुछ और स्तुति करते हैं - तव-नियम- सच्च-संजम, विणय ज्जव-खंति मद्दव - रयाणं । सील गुण-गद्दियाणं, अणुओग-जुग-प्पहाणाणं ॥ ४८ ॥ ये तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव, क्षमा और मार्दव में रत हैं । शील गुण से विख्यात हैं। अनुयोगधारियों में युग प्रधान हैं। सुकुमाल - कोमल-तले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे। पाए पावयणीणं, पडिच्छय-सयएहिं पणिवइए ॥ ४९ ॥ ऐसे प्रावचनिकों में प्रधान श्री दुष्यगणि के चरणों में जिनके चरणों के तलवे सुकुमार और मनोज्ञ हैं, शंख चक्र आदि प्रशस्त लक्षणों से युक्त हैं और सैंकड़ों प्रातीच्छकों से नमस्कृत हैं, (मैं २७ देववाचक शिष्य) प्रणाम करता हूँ । प्रातीच्छक - जो श्रुतार्थी मुनिराज, विशेष श्रुत के अभ्यास के लिए अपने गच्छ के आचार्य से आज्ञा लेकर, अन्य गच्छ में जाते हैं और वहाँ के गच्छ के वाचक आचार्य आदि की आज्ञापूर्वक वहाँ के वाचकों से श्रुतज्ञान ग्रहण करते हैं उन्हें 'प्रातीच्छक' कहते हैं । जे अन्ने भगवंते, कालिय- सुय - आणुओगिए धीरे । ते पणमिऊण सिरसा, "नाणस्स परूवणं" वोच्छं ॥ ५० ॥ ************ उक्त २७ भगवन्तों के अतिरिक्त अन्य जो कालिक आदि श्रुत के अनुयोगधर हैं, धीर हैं, जिनका 'इस स्थविरावली में समावेश नहीं कर सका, उन सबको कृतज्ञता से शिरसा प्रणाम करके ज्ञान की प्ररूपणा करूँगा । ॥ इति श्री देववाचक आचार्य निर्मित स्तुति और आवलिका समाप्त ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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