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श्रुतज्ञान देने की विधि
सुनने की विधि
मूअं हुंकारं वा, वाढक्कारं पडिपुच्छ वीमंसा ।
तत्तोपसंगपारायणं च, परिणिट्ठ सत्तमए ॥ ९६ ॥
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भावार्थ - सर्वप्रथम १. 'मूक रहे' - गूंगे की भांति चुपचाप होकर गुरुदेव के वचन सुने । २. 'हुँकार करें' - सुनने के पश्चात् गुरुदेव को विनय युक्त तीन बार वन्दना करे। ३. 'बाढ़कार करे' - वन्दना के पश्चात् 'गुरुदेव ! आपने यथार्थ प्रतिपादन किया'- यों कहे । ४. 'प्रतिपृच्छा करे' यह 'तत्त्व यों कैसे ?' - यों सामान्य प्रश्न करे । ५. 'विमर्श करें' - प्रश्न का सामान्य उत्तर मिलने के पश्चात् विशेष ज्ञान के लिए प्रमाण आदि पूछे । ६. 'प्रसंग पारायण करे' प्रमाण आदि प्राप्त करके उस तत्त्वप्रसंग का आद्योपान्त सूक्ष्म बुद्धि से पारायण करे । ७. 'परिनिष्ठ होवें'। ऐसा करने पर सातवीं दशा में श्रुतार्थी शिष्य, गुरुदेव के समान ही तत्त्व प्रतिपादन में समर्थ बन जाता है ।
अब सूत्रकार, शिष्य को श्रुतज्ञान देने की विधि बताते हैं ।
श्रुतज्ञान देने की विधि
सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ णिज्जुत्तिमीसिओ भणिओ । तइओ य णिरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥ ९७ ॥
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प्रथम सूत्र पढ़ावें और सामान्य अर्थ बतावें, फिर नियुक्ति मिश्रित सूत्रार्थ पढ़ावें और अन्त में
नय, निक्षेप प्रमाणादि सहित 'निरवशेष' सूत्रार्थ पढ़ावें । यह श्रुतदान की विधि है ।
सेत्तं अंगपविट्टं । सेत्तं सुयणाणं । से त्तं परोक्खणाणं ।
( से त्तं णाणं) से त्तं नंदी | नंदी समत्ता ॥
यह अंगप्रविष्ट है । यह श्रुतज्ञान है । यह परोक्ष ज्ञान है। (यह ज्ञान है) यह नंदी है।
॥ नंदी सूत्र समाप्त ॥
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