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________________ २७० नन्दी सूत्र * * * * * -*-*-*-* ** * * * * * * * * * * * * * * * * * ******************* ८. भद्रबाहु गण्डिकाएँ ९. तपःकर्म गण्डिकाएँ १०. हरिवंश गण्डिकाएँ ११. उत्सर्पिणी गण्डिकाएँ १२. अवसर्पिणी गण्डिकाएँ १३. चित्रान्तर गण्डिकाएँ १४. अमरगति (देवगति) १५. मनुष्यगति १६. तिर्यंचगति और १७. नरकगति में जाना, विविध प्रकार से पर्यटन होना इत्यादि गण्डिकाएँ कही जाती हैं। प्रज्ञप्त की जाती हैं। यह गण्डिका अनुयोग है। यह अनुयोग है। से किं तं चूलियाओ? चूलियाओ आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलिया, सेसाई पुव्वाइं अचूलियाई। से त्तं चूलियाओ। प्रश्न - वह चूलिका क्या है? (ग्रंथ के मूल प्रतिपाद्य विषय की समाप्ति के पश्चात् ग्रंथ के अन्त में जो ग्रंथित किया जाता हैं, उसे 'चूलिका' कहते हैं। इसमें या तो ग्रंथ में कही हुई बातें ही विशेष विधि से दोहरायी जाती ह या मूल प्रतिपाद्य विषय के सम्बन्ध में जो कथन शेष रह गया हो, वह कहा जाता है।) उत्तर - आदि के चार पूर्वो की ३४ चूलिकाएँ हैं। शेष दस दस पूर्वो की चूलिकाएँ नहीं हैं। यह चूलिका है। दिट्ठिवायस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखिज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ। ___अर्थ - दृष्टिवाद में परित्त वाचनाएं, संख्येय अनुयोगद्वार, संख्येय वेष्ट, संख्येय श्लोक संख्येय ' प्रतिपत्तियाँ, संख्येय नियुक्तियाँ और संख्येय संग्रहणियाँ हैं। से णं अंगट्ठयाए बारसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे चोइस पुव्वाइं, संखेज्जा वत्थू, संखेज्जा चूलवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुडपाहुडा, संखेज्जाओ पाहुडियाओ, संखेज्जाओ पाहुडपाहुडियाओ। ___अर्थ - यह अंगों में बारहवाँ अंग है। इसका एक श्रुतस्कंध है। चौदह पूर्व हैं। संख्येय वस्तुएँ-पूर्व के विभाग हैं (२२५ वस्तुएँ हैं)। संख्येय चूलिका वस्तुएँ हैं (३४ चूलिका वस्तुएँ हैं)। संख्येय प्राभृत-वस्तुओं के विभाग हैं। संख्येय प्राभृतप्राभृत-प्राभृत के विभाग हैं। संख्येय प्राभृतिकाएँप्राभृत-प्राभृत के विभाग हैं। संख्येय प्राभृतप्राभृतिकाएँ-प्राभृतिकाओं के विभाग हैं। संखेज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा, अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा। अर्थ - संख्येय सहस्रपद हैं। (८३ करोड २६ लाख ८० सहस्र ५ पद हैं।) संख्येय अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्यव हैं, परित्त त्रस हैं और अनन्त स्थावर हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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